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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६२ विकृतिविज्ञान २० - उदावर्त तादीनां वेगसन्धारणाद्यः सर्वेन्द्राशन्यग्निशस्त्रोपमानः । क्रुद्धोऽपानप्यूर्ध्वमुत्पद्य तीव्रोदानव्याप्तः स्यादुदावर्तरोगः ॥ कल्याणकारक आरम्भ में वातादि वेगों के सन्धारण करने से सर्प, वज्र, अग्नि तथा शस्त्र के समान भयङ्कर हुआ अपान वायु ऊर्ध्वगामी होकर उदान वायु को तीव्रगति से व्याप्त कर लेता है तब उदावर्त रोग होता है । २:- उन्माद - तैरल्पसत्त्वस्य मलाः प्रदुष्टा बुद्धेर्निवासं हृदयं प्रदूष्य । स्त्रोतांस्यधिष्ठाय मनोवहानि प्रमोहयन्त्याशु नरस्य चेतः ॥ ( चरक संहिता चि. स्था. ) विविध कारणों से दुर्बलमना व्यक्तियों के दुष्ट हुए दोष बुद्धि के निवास हृदय को दूषित करके मनोवह स्रोतसों में व्याप्त होकर मनुष्य की चेतना को मोहित करके उन्माद की उत्पत्ति करते हैं । २२—उन्मार्गी भगन्दर - मूढेन मांसलुब्धेन यदस्थिशल्यमन्नेन सहाभ्यवहृतं यदावगाढपुरीषोन्मिश्रमपानेनाधः प्रेरितमसम्यगागतं गुदं क्षिणोति, तत्र क्षतनिमित्तः कोथ उपजायते, तस्मिंश्च क्षते पूयरुधिरावकीर्णमांसकोथे भूमाविव जलप्रक्लिन्नायां क्रिमयः सञ्जायन्ते, ते भक्षयन्तो गुदमनेकधा पार्श्वतो दारयन्ति, तैर्मार्गेः कृमिकृतवातमूत्रपुरीषरेतांस्याभिनिःसरन्ति; तं भगन्दरसुमार्गिणमित्याचक्षते । ( सुश्रुत ) मांस का लोभी कोई मूढ जब अन्न के साथ किसी अस्थिशल्य को भी खा जाता है तब वह अस्थिशल्य पुरीष के अन्दर साथ में मिलकर अपान के द्वारा प्रेरित होकर गुद को काटता है । वहाँ एक क्षत बन जाता है उससे कोथ की उत्पत्ति होती है । उस क्षत के पूय-रक्त-मांस जनित कोथ में जिस प्रकार भूमि पर देखा जाता है कृमि उत्पन्न हो जाते हैं। वे कृमि गुद के पार्श्वभाग को अनेक स्थानों पर काटते हैं । उन मार्गों से कृमियों के साथ वातमूत्रपुरीष-रेतसादि निकला करते हैं इस भगन्दर को उन्मार्गी भगन्दर कहा जाता है I २२ – उपान्त्रशोथ — उपान्त्रस्य भित्तौ यदा इलेष्मणो वा कलायां प्रकुर्यु हि कीटाः प्रशोथम् । ततो मन्दभावेन वृद्धः स शोयो व्रणस्य स्वरूपं तु नूनं सुदध्यात् ॥ ( मा. नि. चौ. ) उपान्त्र (उण्डुकपुच्छ) की प्राचीर में या उसकी श्लेष्मलकला में जब जीवाणु शोधोत्पत्ति करते हैं तब शनैः-शनैः बढ़ता हुआ वह शोथ व्रण का रूप धारण कर लेता है । २४-उरःक्षत तथाऽन्यैः कर्मभिः क्रूरैर्भृशमभ्याहतस्य वा । विक्षते वक्षसि व्याधिर्बलवान् समुदीर्यते ॥ स्त्रीषु चातिप्रसक्तस्य रूक्षात्पप्रमिताशिनः । उरो विभज्यतेऽत्यर्थं भिद्यतेऽथ विरुज्यते ॥ प्रपीड्यते ततः पार्श्वे शुष्यत्यङ्ग प्रवेपते । क्रमाद्वीर्यं बलं वर्णों रुचिरग्निश्च हीयते ॥ ज्वरो व्यथा मनोदैन्यं विभेदाग्निवधावपि । दुष्टः श्यावः सुदुर्गन्धः पीतो विग्रथितो बहुः ॥ कासमानस्य चाभीक्ष्णं कफः सासृक् प्रवर्तते । स क्षती क्षीयतेऽत्यर्थ तथा शुक्रोजसोः क्षयात् ॥ ( भा. प्र . ) अत्यधिक साहसिक कार्य करने से अथवा बहुत चोट लगने से छाती में घाव हो जाने पर उरःक्षत नामक एक बलवती व्याधि उत्पन्न हो जाती है । रूक्ष, थोड़ा और परिमित भोजन करने अथवा अत्यधिक स्त्री के साथ सहवास करने से उरःस्थल बहुत अधिक क्षतिग्रस्त हो जाता है उसमें भेदन तथा शूल होता है । उसके कारण पार्श्व में खूब पीड़ा होती है, शरीर सूखता जाता है तथा कम्पन होता है। धीरे-धीरे उसका वीर्य, बल, वर्ण, रुचि और अभि सब कम होने लगती है । ज्वर, शूल, मनोदैन्य ( neurasthenia ) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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