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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्प्राप्तिविमर्श १०६१ आक्षेपकगदस्यैषा सम्प्राप्तिर्वैद्यनिश्चिता । प्रायेणात्र नृणां लोके जीवितं दुर्लभं भवेत् ।। __ -माधवनिदान ( चौखम्बा) जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न विष मानवीय मस्तिष्क मूल, सुषुम्नाकाण्ड इनको आच्छादित करनेवाली कला के अन्तराल में स्थित लसीका को पूयाभ बनाकर सम्पूर्ण दोषों को प्रकुपित करके तत्रस्थ चेष्टावह नाड़ियों में पहुंचकर उनको अत्यधिक उत्तेजित कर देता है जिससे शरीरांग खूब आक्षेप करते हैं । शाखाएँ संकोच करतो हैं और चेतना नष्ट हो जाती है । रोगी का जीवन दुर्लभ हो जाता है। १८-आक्षेपकयदा तु धमनीः सर्वाः कुपितोऽभ्येति मारुतः। तदाक्षिपत्याशु मुहुर्मुहुर्देहं मुहुश्चरः॥ मुहुर्मुहुस्तदाक्षेपादाक्षेपक इति स्मृतः। सोऽपतानकसंज्ञो यः पातयत्यन्तरान्तरा ॥ कफान्वितो भृशं वायुस्तास्वेव यदि तिष्ठति । स दण्डवत् स्तम्भयति कृच्छ्रो दण्डापतानकः ।। हनुग्रहस्तदात्यर्थ सोऽन्ने कृच्छान्निषेत्रते। कफपित्तान्वितो वायुर्वायुरेव च केवलः ॥ कुर्यादाक्षेपकन्त्वन्यं चतुर्थमभिघातजम् । गर्भपातनिमित्तश्च न शोणितातिस्रवाच्च यः ।। अभिघातनिमित्तश्च न सिध्यत्यपतानकः ॥ जब प्रकुपित वायु शरीरस्थ सम्पूर्ण धमनियों में होकर चलता है तो बार-बार शीघ्रशीघ्र रोगी का शरीर आक्षेप करता है । बार-बार उसमें गति होती है । बार-बार के आक्षेप के कारण यह रोग आक्षेपक कहलाता है। पर जब यही आक्षेप पर्याप्त अन्तर से आते हैं तो उसे अपतानक कहा जाता है। गयदासाचार्य के अनुसार येन अपताम्यत-तथा येन वायुना कर्तृभूतेन हेतुभूतेन वा पुमान् अपताम्यते तमो दृश्यते मोह्यते इति यावत् सोऽपतानक इति । स एवापतानकः हृदिस्थमनोऽधिष्ठानेन सकफेन वायुना जन्यत इति । अर्थात् जो अपताम्यता करता है अन्धेरा कर देता है वह अपतानक है। वायु के कारण जब मनुष्य अन्धकार को देखता तथा मूच्छित हो जाता है तो वह अपतानक कहलाता है। यह हृदय में जो मन से अधिष्ठित है वहाँ कफ के साथ कुपित वायु द्वारा उत्पन्न रोग है । यही जब दण्ड के समान शरीर को स्तम्भित कर देता है तो दण्डापतानक कहलाता है। इस रोग में हनुग्रह ( trismus ) होने से अन्न का निगलना कठिन हो जाता है। ____ यह आक्षेपक चार प्रकार का होता है। एक कफ से युक्त वात द्वारा जिसे संसृष्टाक्षेपक कहा जाता है। दूसरा पित्त से युक्त वात द्वारा जो अपतानक कहलाता है। तीसरा केवल वात द्वारा जो केवलाक्षेपक कहलाता है। चौथा अभिघातज आक्षेप कहलाता है। यह गर्भपातजन्य या अतिशय रक्तस्राव के कारण होता है। यह चतुर्थ साध्य नहीं माना है। १९-उदररोग-ऊर्ध्वाधो धातवो रुद्ध्वा वाहिनीरम्बुवाहिनीः । प्राणाग्न्यपानान्सन्दूष्य कुर्युस्त्वङ्मांससन्धिगाः॥ आध्माप्य कुक्षिमुदरमष्टधा तच्च भिद्यते । पृथग्दोषैः समस्तैश्च प्लीहवद्धक्षतोदः ॥ (अष्टांगहृदय नि. स्था.) ऊर्ध्व और अधो भाग में वातादि दोष जलवाही स्रोतसों को अवरुद्ध करके तथा प्राणवायु, जाठराग्नि तथा अपानवायु को दूषित करके त्वचा और मांस की सन्धियों में प्रवेश करके कुक्षि तथा उदर को फुलाकर उदर रोग उत्पन्न करते है। उसके आठ भेद किए जाते हैं-बातोदर, पित्तोदर, कफोदर, सन्निपातोदर, प्लीहोदर, बद्धगुदोदर, क्षतोदर तथा जलोदर। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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