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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान अपथ्यसेवन करने वालों को अभिघात या क्षत लगने से आहत स्थान की ऊष्मा वायु द्वारा विस्तार पाकर रक्त के साथ पित्त को भी वहाँ प्रकुपित कर देती है जिसके कारण ज्वर, तृष्णा तथा दाह उस व्यक्ति को उत्पन्न हो जाते हैं। यही अन्तर्विदधि है जिसके लक्षण पैत्तिक विधि के समान होते हैं। ३-अन्तरायामसमस्तधमनीगतप्रकुपितोऽनिलः इलेष्मणा । स दण्डधनुराकृतिं तनुमिहातनोत्यायताम् ॥ स एव बहिरन्तरङ्गधमनीगतोऽप्युद्धतो । बहिर्बहिरिहान्तरान्तरधिकं नरं नामयेत् ॥ (क. का. वा. १६) सम्पूर्ण धमनियों में व्याप्त वायु श्लेष्मा के साथ मिलकर शरीर को दण्ड तथा धनुष के रूप में झुका देता है । बाह्य धमनीगत होने पर वहिरायाम तथा आभ्यन्तर धमनी में स्थित होने पर अन्तरायाम कारक होता है। ४-अन्येधुष्कज्वर-अन्येद्युः पुनरहोरात्रत्य सकृदेकवारं वेगं करोति । तस्मिन्दोषा मांसवहा नाडीराश्रिताः । ( अ. सं. शशिलेखा व्याख्या ) अन्येद्यष्कज्वर में कुपित दोष मांसवहा नाडियों के अन्दर रहते हैं तथा दिन-रात्रि में केवल एक बार ज्वर का दौरा होता है। ५-अपचीवातपित्तकफवृद्धा मेदश्चापि समाचितम् । जङ्घयोः कण्डराः प्राप्य मत्स्याण्डसदृशान् बहून् । कुर्वन्ति प्रथितास्तेभ्यः पुनः प्रकुपितोऽनिलः । तान् दोषानूलगो वक्षः कक्षामन्यागलाश्रितः॥ नानाप्रकारान् कुरुते ग्रन्थीन् सा त्वपची स्मृता । च्यामिश्रदोषजातस्य कृच्छ्रसाध्या प्रकीर्तिता । (भोज) __वात, पित्त और कफ मेद के साथ मिलकर जवाओं की कण्डराओं में मछली के अण्डे जैसी अनेक गाँठे बना देती हैं। उनमें फिर वायु कुपित होकर ऊर्ध्वगामी होकर वक्ष, कक्षा, मन्या तथा गले में नाना प्रकार की गाँठे उत्पन्न कर देता है। ये अपची कहलाती हैं। मिलित दोषों से उत्पत्ति होने से यह कष्टसाध्य समझी जाती है। ६-अपतन्त्रकबायुरूर्वं व्रजेत्स्थानात् कुपितो हृदयं शिरः। शङ्खौ च पीडयत्यङ्गान्याक्षिपेन्नमयेच्च सः॥ निमीलिताक्षो निश्चेष्टः स्तब्धाक्षो वाऽपि कूजति । निरुच्छ्वासोऽथवा कृच्छादुच्छ्वस्यान्नष्टचेतनः ॥ सस्थः स्याद्धृदये मुक्ते ह्यावृते च प्रमुह्यति । कफान्वितेन वातेन ज्ञेय एषोऽपतन्त्रकः ॥ (सु. नि. स्था. अ. १) प्रकुपित वायु अपने स्थान को छोड़ देता है तथा हृदय, शिर और दोनों शंखों को पीडित करता है। अंगों में आक्षेप करता है तथा उनको झुका देता है। नेत्रबन्द, चेष्टाहीन, नेत्रस्तब्ध रोगी कूजने लगता है या उच्छवास लेता ही नहीं या कष्टपूर्वक उच्छवास लेता है। उसकी चेतनाशक्ति नष्ट हो जाती है। उसका हृदय जब प्रकुपित वायु से मुक्त हो जाता है तो स्वस्थ और यदि आवृत रहा तो मोहयुक्त रोगी हो जाता है। वायु के साथ कफ का अनुबन्ध रहता है । इसे अपतन्त्रक जानना चाहिए। ७-अपतानक-देखो आक्षेपक १८ ८-अपस्मार-चिन्ताशोकादिभिर्दोषाः क्रुद्धा हृत्स्रोतसि स्थिताः । कृत्वा स्मृतेरपध्वंसमपस्मारं प्रकुर्वते ॥ (माधवनिदान) For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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