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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्प्राप्तिविमर्श १०५४ चिन्ताशोकादि मानसिक कारणों से कुपित हुए दोष हृदय के स्रोतों में स्थित होकर स्मृति को विनष्ट करके अपस्मार रोग करते हैं। ९-अभिघातजज्वर-श्रमाच्च तस्मिन् पवनः प्रायो रक्तं प्रदूषयन् ।। सव्यथाशोफवैवयं सरुजं कुरुते ज्वरम् ॥ (अ. सं. नि.स्था. अ. २) अभिघातादिक के कारण वायु प्रायशः रक्त को दूषित करता हुआ व्यथा के साथ शोफ, विवर्णता तथा शूल के साथ ज्वर उत्पन्न कर देता है। १०-अर्दितउच्चैाहरतोऽत्यर्थ खादतः कठिनानि वा । हसतो जृम्भतो वाऽपि भाराद्विषमशायिनः ।। शिरोनासौष्ठचिबुकललाटेक्षणसन्धिगः । अर्दयत्यनिलो वक्त्रमर्दितं जनयत्यतः ॥ वक्रीभवति वक्त्रार्धे ग्रीवा चाप्यपवर्तते । शिरश्चलति वाक्सङ्गो नेत्रादीनां च वैकृतम् ॥ ग्रीवाचिबुकदन्तानां तस्मिन्पार्श्वे च वेदना । यस्याग्रजो रोमहर्षी वेपथुर्नेत्रमाविलम् ।। वायुरूर्वं त्वचि स्वापस्तोदो मन्याहनुग्रहः । तमर्दितमिति प्राहुाधि व्याधिविचक्षणाः ॥ (सुश्रुत वि. स्था.) अत्यधिक चिल्लाने से, कठिन पदार्थ (जैसे बादाम) खाने से, अत्यधिक हसने से, अधिक मुँह फाड़कर जम्हाई लेने से, अधिक भार ढोने से, विषमतया ,सोने से, सिर, नासिका, ओष्ठ, गाल, माथा तथा नेत्रों की सन्धियों में गमन करनेवाली वायु मुखमण्डल को व्यथित करके अर्दित को उत्पन्न कर देती है। इसके कारण चेहरे का आधा भाग टेढ़ा हो जाता है। ग्रीवा भी टेढ़ी हो जाती है। सिर में कम्पन, वाणी का अवरुद्ध होना, नेत्र आदि में विकृति हो जाती है, ग्रीवा, चिबुक तथा दाँतों के पार्श्व में शूल होता है। इसके साथ रोमहर्ष, वेपथु, नेत्रों की आविलता, त्वचा की सुन्नता, मन्याग्रह तथा हनुग्रह होता है। वायु के कारण उत्पन्न इस व्याधि को विकृतिशास्त्रविशारद अर्दित कहते हैं। ११-अर्धावभेदक रूक्षाशनात्यध्यशनप्राग्वातावश्यमैथुनैः। वेगसन्धारणायासव्यायामैः कुपितोऽनिलः ॥ केवल: सकफो वाऽध गृहीत्वा शिरसो बली । मन्याभ्रशङ्खकर्णाक्षिललाटार्थेऽति वेदनाम् ।। शस्त्रारणिनिमां कुर्यात्तीव्रां सोऽर्धावभेदकः । नयनं वाऽथवा श्रोत्रमतिवृद्धो विनाशयेत् ॥ (माधव नि.) रूक्षभोजनादिक विविध श्लोकोक्त अथवा उसी प्रकार के अन्य कारणों से प्रकुपित हुआ बलवान् वात अकेला या कफ के साथ आधे सिर को जकड़कर मन्या, भ्र, शंख, कर्ण, नेत्र और ललाट के आधे भाग में शस्त्रच्छेद जैसी या अग्नि से जलने के समान तीव्र और अत्यधिक वेदना कर देता है। यह शूल कभी-कभी इतना तीव्र हो जाता है कि नेत्र की देखने को तथा कानों की सुनने की शक्ति भी नष्ट हो जाती है। १२-अर्बुद-गात्रप्रदेशे कचिदेव दोषाः सम्मूर्छिता मांसमसृक् प्रदूष्य । वृत्तं स्थिरं मन्दरुजं महान्तमनल्पमूलं चिरवृद्धयपाकम् ॥ कुर्वन्ति मांसोच्छ्यमत्यगाधं तदर्बुदं शास्त्रविदो वदन्ति । वातेन पित्तेन कफेन चापि रक्तन मांसेन च मेदसा वा॥ तज्जायते तस्य च लक्षणानि ग्रन्थे समानानि सदा भवन्ति। (सुश्रुत नि. स्थ.) दृष्यसंसृष्ट प्रवृद्ध दोष शरीर के किसी भी भाग में रक्त तथा मांस धातु को दूषित करके गोलाकार, कठिन, बहुत कम शूल युक्त, बड़े, जिनकी जड़ गहरी है, जिनकी वृद्धि तथा पाक विलम्ब से होता है, जो मांस के एक ऊँचे संघात के रूप में शोफ करते हैं, उसे For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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