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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सम्प्राप्तिविमर्श १०५७ प्रकुपित या क्षीण हुए दोषों के द्वारा हुई उस वास्तविक क्षति की ओर इङ्गित करती है जिसके परिणामस्वरूप रोग के विविध लक्षण प्रकट होते हैं इसके सम्बन्ध में विविध विचारकों की सम्मतियों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आचार्यों ने वास्तविक विकृति का चित्रण सम्प्राप्ति के अन्तर्गत किया है। यतः दोष ही शरीर में किसी भी रोग का कर्ता होता है चाहे फिर उस रोग का कारक कोई बाह्य जीवाणु हो अथवा कोई अन्य रासायनिक वा भौतिक आधार हो। विविध कारणों से शरीर के अंग या धातु विशेष (दृष्यों) में स्थित दोषों की समावस्था में कितना बिगाड़ होता है। दोष उस क्षेत्र में कितना प्रसर्पण करते हैं। उनमें कितनी दुष्टि समाती है। ये सब सम्प्राप्ति के अन्तर्गत आते हैं। इसी कारण सम्प्राप्ति के निम्न भेद स्वीकार किये गये हैं५-संख्या सम्प्राप्ति, २-विकल्प सम्प्राप्ति, ३-प्राधान्य सम्प्राप्ति, ४-बल सम्प्राप्ति तथा ५-काल सम्प्राप्ति जिनके सम्बन्ध में ऊपर बहुत लिखा जा चुका है। आचार्यों ने यत्नपूर्वक विविध रोगों की सम्प्राप्ति प्रकट की है। प्राचीन वैद्य इसी सम्प्राप्ति के द्वारा रोग विज्ञान समझने और चिकित्सा चालू करने का उपक्रम करते थे। रोग का कौन लक्षण है इस ओर वे ध्यान न देकर इस लक्षण के मूल में कौन दोष मुख्यतया विकार का यह रूप उपस्थित कर रहा है इसके लिए चिकित्सा करते थे। इसका प्रमाण है शिरःशूल के रोगी को विबन्धनाशक और वातशामक चिकित्सा द्वारा ठीक करने के लिए जहाँ वैद्य प्रकट होता और आदर पाता है वहाँ आधुनिक चिकित्सक प्रत्यक्षशूलशामक एस्प्रीन बार्बीटयूरेट्स आदि का उपयोग कर शूल को तत्क्षण कुछ काल के लिए बन्दकर रोगी का विश्वास पाने में सफल होता है। इसी से आयुर्वेद रोग का समूल नाश करता है तथा डाक्टरी रोग में क्षणिक शान्ति प्रदान करती है ऐसी किंवदन्ती लोक में कहीं भी सुनने को मिल जाती है। विविध विकार और उनकी सम्प्राप्ति अब हम आयुर्वेदीय शास्त्रों में वर्णित विविध रोगों की सम्प्राप्ति के सार मात्र का नोचे उल्लेख करेंगे ताकि उनके सम्बन्ध की कल्पना यथार्थ रूप से समझी जा सके। यहाँ विकल्पांशकल्पना और दुष्ट दोष की स्थिति को मुख्य रूप से ही लिखा जा रहा है। संख्या, सम्प्राप्ति आदि निदान का प्रत्यक्ष विषय होने से छोड़ा जा रहा है। -अतीसार-संशम्यापां धातु रनिं प्रवृद्धः शकुन्मिश्रो वायुनाथः प्रणुन्नः। सरत्यतीवातिसारं तमाहुाधिं घोरं षडविधं तं वदन्ति ।। (सुश्रुत उ. तं.) अग्नि को नष्ट करके बढ़ी हुई जलीय धातु मल के साथ मिलकर वायु के द्वारा अधोमार्ग की ओर प्रेरित की जाती है। मल के बार-बार सरण करने से इस घोर व्याधि को अतीसार कहते हैं। उसे ६ प्रकार का विद्वज्जन बतलाया करते हैं। २-अन्तर्विदधितैस्तैर्भावैरभिहते क्षते वापथ्यसेविनः। क्षतोष्मा वायुविसृतः सरक्तं पित्तमीरयेत् ।। ज्वरस्तृष्णाच दाहश्च जायते तस्य देहिनः । एष विद्रपिरागन्तुः पित्तविद्रधिलक्षणः॥ (सुश्रुत चि. स्था. अ. ९) ८६ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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