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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०५६ विकृतिविज्ञान विशेषण । इन दो विशेषणों को ही आधार मानकर रोग के भेद किये गये हैं, अत एव यहां पर विधि शब्द का ही प्रयोग किया गया। इसी प्रकार'मन्दस्तीक्ष्णोऽथ विषमः समश्चेति चतुर्विधः । कफपित्तानिलाधिक्यात्तत्साम्याजाठरोऽनलः ॥' यहां पर मन्द आदि चार विशेषणों द्वारा विशेष्यभूत अग्नि के चार भेद प्रतिपादित किये गये हैं अतः यहां भी विशेषण के आधार पर ही विधिशब्द का प्रयोग किया गया है। किन्तु जहां भेदमात्र अभीष्ट है वहां केवल संख्या का ही प्रयोग करते हैं। यथाअष्टौ ज्वराः, पञ्च गुल्माः, सप्त कुष्ठानि । इन सबों में भेद का निर्देश ज्वर आदि विशेष्य को मानकर किया गया है अतः यहां संख्या प्रयुक्त हुई है। ‘पञ्च ब्राह्यणक्षत्रियाः' यहां पर संख्या का प्रयोग विशेष्य प्रयुक्त ही है । क्वचित् संख्या और विधि दोनों का एकत्र प्रयोग भी हो सकता है । यथा-त्रयो रक्ताः, द्वौ श्वेतौ, पञ्च लोहमयाः कुम्भाः, इति त्रिविधाः अष्टौ च कुम्भाः' यहां पर कुम्भरूप विशेष्य के आधार पर संख्या का तथा उनके विशिष्ट धर्मों के आधार पर विधि शब्द का एकत्र प्रयोग करने पर भी कोई दोष नहीं आता। इस प्रकार विधि को संख्या से भिन्न ही मानना चाहिए। यदि दोनों को एक ही माना जाय तो त्रिविध के साथ आठ कहना असंगत प्रतीत होगा। इसके अतिरिक्त विधिरूप सम्प्राप्ति का परिणाम भी संख्या रूप सम्प्राप्ति से नितान्त भिन्न है। यथा ऊर्ध्वगरक्तपित्त में अधोमार्ग से हरण करने पर ही शान्ति होती है। ऊर्ध्वहरण से नहीं। अधोग रक्तपित्त में ऊर्ध्वमार्ग से दोष निर्हरण कराने से लाभ होता है अधोनिहरण से नहीं। इस प्रकार वाग्भट तथा उनका अनुकरण करने वाले माधवकर ने जो विधि का अन्तर्भाव संख्या में ही किया है वह भ्रमपूर्ण है। क्योंकि विधि के क्षेत्र में केवल संख्या का प्रयोग करना अनुपयुक्त है । चक्रपाणि ने भी कहा है कि 'संख्याद्यगृहीते व्याधिप्रकारेऽयं विधिशब्दो वर्तनीयः' अर्थात् संख्या आदि में अन्तर्भाव न होने योग्य व्याधि के विशिष्ट भेदों का निरूपण करने के लिये विधि शब्द का उपयोग करना चाहिए। __ अब यह प्रश्न हो सकता है कि अंशांश कल्पना आदि भेदों के द्वारा ज्वर आदि व्याधि का जिस प्रकार विशेष ज्ञान होता है वैसे संख्या से नहीं, पुनः संख्या का पाठ क्यों किया गया? इसके लिये कहते हैं संख्या भेद से व्याधि का दोष भेद जाना जाता है। अर्थात् दोष भेद होने के कारण उन्हें जानने के लिये ही संख्या का प्रयोग करना पड़ा है। अतः ज्वर आदि व्याधि को स्वरूप से जानकर भी चिकित्सा के लिये ज्वर के वातिक आदि विशेष भेदों को जानने की आवश्यकता पड़ती है इन भेदों को जानने के पश्चात् ही चिकित्सा में वैशिष्ट्य किया जा सकता है। इस प्रकार संख्या में परम्परया कारणता है। किसी भी कारण से उत्पन्न रोग तत्काल दोषभेद से विशिष्ट रूपों को धारण कर सकता है, अतः चिकित्सा विशेष के लिये उस भेद को जानना परमावश्यक है। यह भेद संख्या के प्रयोग से ही ज्ञात हो सकता है । अतः संख्या का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि रोगों के सम्यक् ज्ञान के लिए जहाँ निदान, पूर्वरूप, रूप तथा उपशय का विचार किया जाता है वहाँ पर ही सम्प्राप्ति का भी ध्यान दिया जाता है। निदान उन हेतुओं की ओर इङ्गित करता है जो शरीरस्थ विकृति के कारणस्वरूप होते हैं। पूर्वरूप विकार के भावी स्वरूप की ओर इङ्गित करता है। रूप, विकृतिजन्य शरीर पर हुए परिणाम का प्रकाशक है। उपशय निदान और चिकित्सा दोनों के ज्ञान में सहायक आधार स्वरूप होता है। परन्तु सम्प्राप्ति शरीर के अङ्ग वा आशय विशेष में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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