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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्नि वैकारिकी ६८७ ग्रहणीमाश्रितं दोषमजीर्णवदुपाचरेत् । ( वाग्भट ) जो कहा गया है वह भी सार्थक और तर्क पर डटने वाला सत्य है । ___ ग्रहणी से जिस रोग की ओर इङ्गित किया गया है उसके प्राग्रूप वाग्भट ने निम्न शब्दों में दिये हैं:प्राग्रूपं तस्य सदनं चिरात्पचनमम्लकः । प्रसेको वक्त्रवरस्यमरुचिस्तृट् क्लमो भ्रमः॥ ___आनद्धोदरताछर्दिः कर्णक्ष्वेडोऽन्त्रकूजनम् । अवसाद, देर से पचना, खट्टी डकारें, प्रसेक, मुख की विरसता, अरुचि, तृष्णा, क्लम, भ्रम, पेट फूलना, वमी, कर्णवेड और अन्नकूजन ये उसके पूर्व रूप हैं । हारीत ने ग्रहणी रोग की व्याख्या बड़े ही भव्य भाव से की है यदल्पमल्पं क्रमशो निषेवितं मलं भगाधारगतं च नित्यम् । हत्वान्तराग्निं कुरुते नरस्य विकारमाहुर्ग्रहणीति संज्ञाम् ।। निर्वृत्ते चातिसारे शमयति दहनं भूयसा दोषितोऽपि । भुक्त्वा नाश्यमलांशं बहुदिनमनिशं सञ्चयित्वा निसति ।। वारं वारं विगृह्य सहजमसरलं पक्कमानं धनं वा । दुर्व्याधि|ररूपो मनुज रुजकरः स्यात्तथा ग्रहणीति ॥ ग्रहणी के सर्व सामान्य लक्षण सामान्य लक्षणं कायं धूमकस्तमको ज्वरः। मूर्छा शिरोरुग्विष्टम्भः श्वयथुः करपादयोः ।। कृशता, धुंआ सा उठना, अंधकार का होना, ज्वर, मूर्छा, शिरःशूल, मलावरोध तथा हाथ, पैरों में शोथोत्पत्ति ये ग्रहणी के सामान्य लक्षण हैं। प्रकार स चतुर्था पृथग्दोषैः सन्निपाताच्च जायते । वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्निपातिक इस प्रकार ग्रहणी चार प्रकार की बतलाई जाती है । हम उनका वर्णन नीचे एक-एक करके करते हैं। वातिक ग्रहणी कटुतिक्त कषायातिरूक्षशीताल्पभोजनैः । प्रमितानशनात्यध्ववेगनिग्रहमैथुनैः ।। मारुतः कुपितो वह्नि संछाद्य कुरुते गदान् । ( चरक चि. स्था. अ. १५) कटु रस प्रधान, तिक्त रस प्रधान, कषाय रस प्रधान, अत्यन्त रूक्ष, अत्यन्त शीतल और अल्प मात्रा में भोजन करने से, मात्रा हीन भोजन से, अनशन से, अत्यधिक मार्ग तय करने या पैदल यात्रा करने से, वेर्गों के रोकने से तथा मैथुन में अतिशय प्रवृत्त होने पर (स्वतन्त्र रूप में या अतीसार के पश्चात् ) वायु कुपित हो कर अग्नि को आच्छादित करके रोगों को उत्पन्न करता है। जो रोग वातिक कारणों और अग्नि के नष्ट होने से होते हैं उनमें वातिक ग्रहणी का एक अपना स्थान रहा करता है। वातिक ग्रहणी के निम्नलिखित लक्षण विविध शास्त्रकारों ने स्वीकार किये हैं : For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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