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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८६ विकृतिविज्ञान ४. स्वभाव से ही अतिसार आशुकारी होता है। ग्रहणी के सम्बन्ध में वह लिखता हैसाम सान्नमजीर्णेऽन्ने जीर्णे पक्कं तु नैव वा । अकस्माद्वा मुहुर्बद्धमकस्माच्छिथिलं मुहुः ।। चिरकृद् ग्रहणीदोषः सञ्चयाच्चोपवेशयेत् । कि ग्रहणी-१. आहार के जीर्ण न होने की अवस्था में और कभी-कभी जीर्ण होने पर भी उत्पन्न होती है। २. इसमें मल सान्न, साम अथवा पक्क रूप में या अपक्व निकलता है। ३. मल अकस्मात् बँधा हुआ बार बार आता है और कभी अकस्मात् बार-बार ढीला होता है। ४. ग्रहणी रोग चिरकारी होता है और दोषों के सञ्चय के द्वारा उत्पन्न होता है। ५. ग्रहणी रोग की उत्पत्ति बहुधा अतीसार के उपरान्त होती है और इसमें अग्नि को विध्वंस करने वाले पदार्थों का सेवन करना मुख्यतया महत्त्वपूर्ण होता है। चरक ने ग्रहणी रोग का स्वरूप निम्न पक्षियों में व्यक्त किया है: अधस्तु पक्कमामं वा प्रवृत्तं ग्रहणीगदः । उच्यते सर्वमेवान्नं प्रायो ह्यस्य विदह्यते ।। अधोमार्ग से कच्चे या पक्के मल की प्रवृत्ति को ग्रहणी रोग कहते हैं। इस रोग में खाया हुआ सम्पूर्ण अन्न प्रायः करके विदाह को प्राप्त हो जाता है। चरक ने ग्रहणी के स्थान का स्पष्ट निर्देश करते हुए उसके कार्यों का भी विवेचन किया है: अग्न्यधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणात् ग्रहणी मता । नाभेरुपरि सा ह्यग्निबलोपस्तम्भबृंहिता ।। अपक्वं धारयत्यन्न पक्वं सृजति पार्श्वतः। दुईलाग्निबलाढुष्टा त्वाममेव विमुञ्चति ।। ग्रहणी अग्नि का अधिष्ठान है। अन्न का वह ग्रहण करती है । अतः वह ग्रहणी कहलाती है। यह नाभि से ऊपर होती है और अग्नि के बल रूप उपस्तम्भ से पुष्ट हो कर एक पार्श्व से कच्चा अन्न ग्रहण करके दूसरे पार्श्व से उसे परिपक्क करके निकाल देती है। यदि उसकी अग्नि दुर्बल हो गई है और उसके कारण वह दुष्ट हो चुकी है तो फिर यह आम रूप में उसको निकालती है। सुश्रुत ने षष्ठी पित्तधरा कला को ग्रहणी माना है और अग्नि बल उसके आश्रित किया है:__षष्ठी पित्तधरा नाम या कला परिकीर्तिता। पक्कामाशयमध्यस्था ग्रहणी सा प्रकीर्तिता ।। ग्रहण्या बलमग्निहि स चापि ग्रहणीश्रितः। तस्मात्सन्दूषिते वह्नौ ग्रहणी सम्प्रदुष्यति ।। नाभि के ऊपर पक्वाशय और आमाशय के बीच में अग्नि के अधिष्ठान जिस अवयव को ग्रहणी नाम दिया है वह तुदान्त्र का ऊपरी भाग है जहाँ कई प्रकार के रस आकर एकत्र होते हैं और अन्न का पाचन करते हैं यह स्थल डुओडीनम कहलाता है। यही ग्रहणी नाम से प्रसिद्ध भी है। अजीर्ण और अग्नि की विकृति के कारण ग्रहणी दूषित हो जाती है और ग्रहणी नामक रोग लोक में मिलता है इस कारण For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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