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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६६५ विकृतिविज्ञान १. तस्यान्नं पच्यते दुःखं शुक्तपाकं खराङ्गता । कण्ठास्य शोषः क्षुत्तृष्णा तिमिरं कर्णयोः स्वनः ॥ पार्श्वोरुवंक्षणग्रीवा रुजोऽभीक्ष्णं विसूचिका । हृत्पीडाकार्यदौर्बल्यं वैरस्य परिकर्तिका ॥ गृद्धिः सर्वरसानाञ्च मनसः सदनं तथा ॥ जीर्णे जीर्यति चाध्मानं भुक्तेस्वास्थ्यमुपैति च । स वातगुल्महृद्रोगी प्लीहाशङ्की च मानवः ॥ चिरादुःखं द्रवं शुष्कं तन्वामं शब्दफेनवत् । पुनः पुनः सृजेद्वर्चः कासश्वासार्दितोऽनिलात् ॥ ( चरक ) २. वाताच्छूलाथिकैः पायुहत्पार्श्वोदर मस्तकैः । ( सुश्रुत ) ३. तत्रानिलात्तालुशोषस्तिमिरं कर्णयोः स्वनः । पार्श्वोरवंक्षणग्रीवारुजाऽभीक्ष्णं विसूचिका ॥ रसेषु गृद्धिः सर्वेषु क्षुत्तृष्णापरिकर्तिका । जीर्णे जीर्यति चाध्मानं भुंक्ते स्वास्थ्य समश्नुते ॥ बातहृद्रोगगुल्मार्श: प्लीहपाण्डुत्वशङ्कितः । चिरादुःखं द्रवं शुष्कं तन्वामं शब्दफेनवत् ॥ पुनः पुनः सृजेद्वर्चः पायुरुक्श्वासकासवान् । ( वाग्भट ) ४. कण्ठशोषश्च हृत्पीडा तृष्णाकासविषूचिके । अन्ने जीर्णे सदा ध्यानं मुक्ते रुजं क्षणे भवेत् ॥ चिरादुखं द्रवं शुष्कं तन्वामं शब्दफेनवत् । पुनः पुनः सृजेद्वर्चः कासश्वासमजीर्णता || ग्रहणी वातजा ज्ञेया दीपनैस्तामुपाचरेत् । ( सिद्धविद्याभूः ) ५. चित्रं सशब्दं सृजतेऽत्र वर्चः शोफोऽनिलो वर्चमतीवरूक्षम् । I होकर अग्नि का श्वासार्तियुक्तं तनुशैथिलं च स्रावो ग्रहण्यानिलकोपतः स्यात् ॥ ( हारीत ) ६. वातादधस्ताद्विसृजेद्धिवचैश्चिरेण दुःखं द्रवशुष्कमामम् ॥ ( वैद्यविनोद ) विविध कारणों से जिस रोगी की वात धातु अत्यन्त प्रकुपित आच्छादन कर लेती है उसका अन्न बड़े कष्ट के साथ पचता है । अन्न का पाक शुक्तमय ( खट्टा ) होता है और शरीर खर ( रूखा ) हो जाता है । मुख, तालु और कण्ठ में शोष, सुधा तथा तृषा की वृद्धि, आँखों के सामने अँधेरा होना, कानों में सनसनाहट रहना, पार्श्व, ऊरु, वंक्षण और ग्रीवाप्रदेश में निरन्तर शूल रहना, विसूचिका, हृदय में शूल, कार्य, दौर्बल्य, मुख की विरसता, कोष्ठ में कर्तनवत् पीड़ा, सभी प्रकार के रसों के प्रति अत्यधिक इच्छा होना, चित्त में अवसाद । रोगी का भोजन की जीर्यमाणावस्था होने पर आध्मान होता है पर कुछ खा लेने पर वह शान्त हो जाता है तथा पुनः भोजन के जीर्ण हो जाने पर आध्मान हो जाता है । इन लक्षणों को देखकर रोगी को शङ्का होती है कि कहीं उसे वात गुल्म, अर्श, हृद्रोग, प्लीहोदर, पाण्डु आदि में से कोई तो नहीं हो गया है । वायु के कारण हुए इस ग्रहणी रोग में गुदा, हृदय, पार्श्व, उदर और शिर में शूल का होना सुश्रुत भी स्वीकार करता है 1 वातिक ग्रहणी के सर्व सामान्य लक्षण निम्नलिखित होते हैं १. रोगी बहुत देर करके मलत्याग करता है । २. मल त्यागकाल में उसे बहुत पीड़ा होती है । ३. रोगी का मल कभी द्रव या तरल रूप में रहता है और कभी सूखा उतरता है । ४. मल पतला और उसमें आम रहती है । ५. मल त्याग के समय विचित्र शब्द होता है । ६. मल में झाग होता है । रोगी को बार बार मल त्याग करने जाना पड़ता है । ७. ८. किसी-किसी दिन रोगी को मल उतरता ही नहीं और पूर्ण कोष्ठबद्धता रहता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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