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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अमि वैकारिकी ६८५ ग्रहणी रोग की उत्पत्ति में अग्नि का क्या महत्त्व है इसे आँकने के लिए यदि हम भेल संहिता की प्रति को उठा लें तो वहाँ आचार्य भेल की निम्न पंक्तियाँ अनायास ही दृष्टि पथ पर आ विराजेंगी अनिर्वायुर्मनुष्याणां प्राणास्तत्र प्रतिष्ठिताः । बलमारोग्यमायुश्च सुखः दुःखं तदाश्रयम् ॥ म्रियते ह्यपशान्तेऽग्नौ युक्ते चोष्मणि जीवति । तस्मात्प्राणायुषी विद्यादग्निमूले शरीरिणाम् || सोग्निरसमुचितं भुक्तं रसाय वितनोत्यधः । तेनेन्द्रियबलं पुष्टिं वर्णं च लभते नरः ॥ चतुविधं पचत्यग्निः समं तीक्ष्णं तथा मृदुः । विषमं चेति तेषां तु यस्समोऽग्निस्स शस्यते ॥ भजतां गुरु रूक्षं च दिवास्वमञ्च नित्यशः । रात्रौ सदारं स्वपतां तथा वेगविधारिणाम् ॥ अत्यनतामजीर्णेन अतिस्नेहविरेकिणाम् । ज्वरान्मद्यप्रसङ्गाच्च तथाऽसात्म्यनिषेवणात् ॥ मधुरक्षीरनित्यानां तथा जलविहारिणाम् । पिष्टान्नदविशाकानामहृद्यानां निषेवणात् ॥ ईदृशैर्ग्रहणी जन्तोर्दूष्यतेऽति निषेवितैः । मन्दातितीक्ष्णाविषमा त्रिविधं सा प्रकुप्यति ॥ मनुष्यों के प्राणों की प्रतिष्ठा, बल, आरोग्य, आयु, सुख, दुःख आदि शरीरस्थ अग्नि तथा वायु के आश्रित होते हैं । अग्नि के शान्त होने पर प्राणी मर जाता है और योग्य प्रमाण में रहने पर जीवित रहता है। अतः शरीरियों के प्राण और आयुष्य का मूल अग्नि ही है । उस अग्नि के लिए समुचित पदार्थ सेवन करने से रसादिधातुओं का परिपाक उचित होकर इन्द्रियबल, पुष्टि, वर्ण व्यक्ति प्राप्त करता है । सम, तीक्ष्ण, I मृदु और विषम चार प्रकार से अग्नि पचाती है । इनमें समाग्नि बहुत प्रशस्त की जाती है । जो गुरु रूक्ष पदार्थों का सेवन करते हैं, नित्य दिन में सोते हैं, रात्रि में स्त्री के साथ सोया करते हैं, जिन वेगों को नहीं रोकना चाहि एउनको रोकते हैं, अजीर्ण होने पर भी बहुत खा जाते हैं, अत्यधिक स्निग्ध विरेचन लेते हैं, ज्वरों में मद्य और मैथुन सेवन करते हैं, असाम्यों का सेवन नित्य मधुर और क्षीर से बने भारी पदार्थ लेते रहते हैं, जल में विहार करते हैं, पीठी के पदार्थ, दही, शाक और अहृद्य द्रव्यों का सेवन करते हैं इन सबके अति सेवन से जन्तु की ग्रहणी दूषित हो जाती है और वह मन्द, अतितीक्ष्ण और अतिविषम इन तीनों रूपों में प्रकुपित हो जाती है । वाग्भट ने ग्रहणी रोग की उत्पत्ति के दो रूप बतलाये हैं- अतीसारेषु यो नातियत्नवान् ग्रहणीगदः । तस्य स्यादग्निविध्वंसकरैरन्यस्य सेवितैः ॥ एक वह जिसमें अतीसार से पीडित रोगी अपने रोग की उपेक्षा कर देता है । दूसरा वह जिसमें अग्नि को नष्ट करने वाले अन्य कारण सम्मिलित हैं । ग्रहणी और अतीसार में क्या अन्तर है इसे जितना स्पष्ट वाग्भट ने अष्टाङ्गहृदय में किया है वह अन्यत्र नहीं मिलता । अतीसार क्या है इस पर वह लिखता है:सामं शकुन्निरामं वा जीर्णे येनातिसार्यते । सोऽतिसारोऽतिसरणादाशुकारी स्वभावतः ॥ -- कि अतिसार १. आहार के जीर्ण होने पर उत्पन्न होता है । २. इसमें मल, साम या निराम कोई सा भी मिल सकता है । ३. मल का अतिसरण या बार बार बहिर्निर्गमन महत्त्वपूर्ण है तथा ८३, ८४ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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