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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ६४५ इस रोग में यकृत् आरम्भ करता है उसी का प्रमाण यकृत् ऊति में इतस्ततः लसीकोशाओं की उपस्थिति है । और अनेक अप्रगल्भ कोशा जो यकृत् में पाये जाते हैं वे वहीं निर्मित होते हैं । इस सबके कारण यकृत् की भी वृद्धि हो जाती है पर वह प्लीहा की अपेक्षा कम रहती है । वृक्कों, हृदय, फुफ्फुस तथा अन्य अंगों में भी लसीकोशा इतस्ततः बिखरे हुए और भरमार करते हुए देखे जाते हैं । सन्तरे के स्वचा के सग्रन्थियाँ बढ़कर अर्बुदों की माला सी बना लेती हैं और एक बराबर तक बड़ी और अलग अलग रहती हुई देखी जाती हैं । वे न तो साथ अभिलग्न होती हैं और न उनमें टूट फूट या पूयन ही देखा जाता है । इस रोग में उपरिष्ठ लसग्रन्थियाँ तथा आभ्यन्तर लसग्रन्थियाँ दोनों ही प्रभावित होती हैं । ग्रन्थियाँ कुछ अपने प्रकृत रूप से अधिक मृदु हो जाती हैं और उनका वर्ण आधूसर गुलाबी ( greyish pink ) हो जाता है । अण्वीक्षणदृष्ट्या परीक्षण करने पर उनकी प्रकृत रचना नष्ट हुई देखी जाती है । उनके अन्दर तुलसीकोशा तथा कुछ बड़े पीठरज्य कोशा भरे रहते हैं । लसग्रन्थक इस रोग में बहुत बढ़ जाते हैं। विशेषकर उदरस्थ लसग्रन्थकों की बहुत वृद्धि होती है वे बढ़कर सुपारी के आकार तक पहुँच जा सकते हैं । उनके अन्दर लसीकोशाओं की खूब भरमार होती है जो उनकी रचना को भी विकृत कर देते हैं । अण्वीक्षण करने पर चित्र लसीसंकटार्बुद जैसा होता है । विविध लसी ऊतियों में वृद्धि इस रोग की साधारण घटना है । तीव्र सितरक्तता ( Acute Leukaemia ) इसे सितरुहिक सितरक्तता ( leucoblastic leukaemia ) भी कहा जाता है । एक मज्जजन्य तीव्र सितरक्तता तथा लसीकोशाजन्य तीव्र सितरक्तता में आदर्शया भेद किया जा सकता है पर व्यवहार में इनमें इतना कम अन्तर होता है कि तीव्र सितरक्तता के नाम से दोनों का बोध होता है । और दोनों को एक ही रोग मानकर उनका वर्णन भी किया जाता है । इस रोग का आरम्भ सहसा तथा ज्वर के आवेग के साथ हुआ करता है । ज्वर प्रकम्प ( rigor ) या आक्षेप ( convulsions) के साथ चढ़ता है और ऐसा लगता है कि मानो रोगाणुरक्तता ( septicaemia ) हो गई हो। इसमें इतने लक्षण सरलतया देखे जा सकते हैं : १. श्लेष्मकलाओं से रक्तस्राव की प्रवृत्ति । २. त्वचा में रक्तस्राव तथा नीलोहिक सिमों (purpuric spots) की उपस्थिति । ३. लसग्रन्थियों की वृद्धि । ४. तुण्डिकेरी, यौवन लुप्त ग्रन्थि ( thymus ) तथा आन्त्र की लसकूपिकाओं की परिवृद्धि । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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