SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1034
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४४ विकृतिविज्ञान पुकारा है । पूर्वमज्जाभ कोशाओं की उत्पत्ति बाद में होती है यह पहले ही कहा जा चुका है । उसका मुख्य कारण वह उत्तेजना है जो अस्थिमज्जा लसीकोशाओं द्वारा भरमार करने से प्राप्त करती है । अस्थिमज्जा के स्वाभाविक कार्य में बाधा पड़ने के ही कारण रक्तसंजननक्रिया में कमी आने लगती है जो रक्तक्षय का कारण बनती है । पर यह बाधा मज्जाजन्य सितरक्तता के बराबर नहीं होती इस कारण यहाँ ऋजुरूहों का निर्माण उसकी अपेक्षा बहुत कम देखा जाता है । मज्जा की प्राकृतिक क्रिया में बाधा इस रोग में कुछ देर में होती है इस कारण विलम्बपूर्वक ही रक्त के बिम्बाणुओं की भी संख्या यहाँ घटने लगती है । इसके कारण रक्तस्रावी प्रवृत्ति और भी बढ़ जाती है । कभी कभी तो ये बिम्बाणु पूर्णतः रक्त से लुप्त हो जाते हैं । इसी विचार के आधार पर मज्जाजन्य सितरक्तता तथा लसीकोशीय सितरक्तता का अन्तर समझने का भी अच्छा अवसर हाथ लगा करता है । मज्जाजन्य सितरक्तता में रक्तक्षय जितना अधिक प्रकट होता है उतना लसीकोशीय सितरक्तता में नहीं वहाँ बृहद्रक्तरुह भी रक्त में खूब पाये जाते हैं तथा ऋजुरुह ( normoblasts ) भी लसीकोशीय सितरक्तताजन्य रक्तक्षय में ये कोशा बहुत कम मिलते हैं। पर रक्तबिवाणुओं की कमी के कारण त्वचा में रक्तस्रावी सिध्म ( petechial ) बन जाते हैं । मल के साथ रक्त आता है और उपवर्णिक रक्तक्षय का आगे चलकर पूर्णरूप विकसित हो जाया करता है । अब विविध अंगों का अवलोकन करने पर अस्थिमज्जा में इस रोग के आरम्भ में जब लसीकोशाओं का वहाँ जमाव होने लगता है तो उसमें आरम्भ में इतस्ततः लाभ ऊति की द्वीपिकाएँ ( islands of lymphoid tissue ) देखने में आती हैं । आगे चलकर शनैः शनैः अस्थि की पीत और दोनों प्रकार की मज्जा का स्थान यह लाभ ऊति ही ले लेती है । स्थूल दृष्ट्या इसका स्वरूप मज्जाजन्य सितरक्कता से मिलता जुलता हो जाता है । लसीकोशीय सितरक्कता में प्लीहा की सामान्य वृद्धि होती है पर अधिक जीर्ण हो जाने पर प्लीहा उतनी ही बड़ी हो जाती है जितनी कि मज्जाजन्य सितरक्तता में पाई जाती है। प्लीहा के गोर्द में लसीकोशा भर जाते हैं । लसी कूपिकाएँ (lymph follicles ) परमचय को प्राप्त हो जाती हैं । मालपोघियन कायाएँ इस रोग में सुरक्षित रहती हैं तथा कुछ बढ़ भी जाती हैं । अन्य अंगों में भी लसीकोशा भर जाते हैं वाहिनियाँ इससे खूब भरी रहती हैं । वाहिनियों के बाहर भी कुछ कोशा जाकर उसी प्रकार भरमार करते हैं जैसे किसी अर्बुद के कोशा । इसीलिए सितरक्तता को कुछ लोग श्वेतकणों का अर्बुद ही मानते हैं । यकृत् के प्रतिहारिणीय मार्गों में छोटे छोटे लसीकोशीय ग्रन्थक बन जाते हैं । यकृत् की वाहिनियों के बाहर भी बहुत से कोशा भरमार किए होते हैं कुछ विद्वानों का कथन है कि यह भरमार न होकर गर्भकालीन रक्तनिर्माण प्रक्रिया को फिर से For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy