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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६४६ विकृतिविज्ञान ५. सन्धियों में शूल। ६. मांसपेशियों में शूल । उपर्युक्त लक्षणों से ऐसा लगता है मानों किसी रोगाणु द्वारा उपसर्ग लग गया हो और उसकी अवस्था सामने आई हो। रोगी का शरीर पीला पड़ जाता है उसे रक्तक्षय के सभी लक्षण दिखने लगते हैं। यह रोग एक बाल रोग है और १० वर्ष तक के बालकों में यह पाया जाता है। ज्वरावस्था के कारण उनका रक्त परीक्षण भी कठिनाई से करने दिया जाता है परन्तु रक्त परीक्षण करना परम आवश्यक होता है। रोग मारक और असाध्य होता है तथा मृत्यु कुछ सप्ताहों में ही हो जाया करती है। तीव्र वितरक्तता में आरम्भ में सितकोशा गणन वहुत अधिक नहीं रहता इसे उपसितरत्त्यावस्था ( subleukaemia) या असितरक्तीय (aleukaemic ) कहा जा सकता है । कोशाओं की संख्या ३०००० प्रतिघन मिलीमीटर से नीचे ही रहती है। आरम्भिक कोशा का स्वरूप देखने से इस रोग में बृहल्लसीकोशा ( large lymphocytes ) ही प्रकट होते हैं इस कारण इस रोग को लसीकोशीय सित रक्तता की तीव्रावस्था घोषित किया जाता था। पर अधिक सूक्ष्म विवेचन करने पर पता चलता है कि ये कोशा मज्जाभ ( myeloid ) ही होते है और वे मज्जाभस्तम्भीयकोशा ( myeloid stem cells ) कहलाते हैं। मज्जरहों तथा लसीरहों की पहचान करना साधारण प्रयोगशालीय कार्यकर्ता का कार्य नहीं है । मजरुहों के साथ मजकोशा और कुछ बह्वाकारी उपस्थित होंगे। यदि वह लसीरुह है तो उसके साथ लसीकोशा मिल सकते हैं। वे लसी कोशा काफी बृहत् भी हो सकते हैं। रिच बिण्ट्रोब और ल्यूइस ने इस ओर कार्य किया है और उन्होंने देखा है कि विशेष संवर्धन के साथ रखने पर मजरुह एक पेच की तरह मुड़े हुए कीड़े की तरह व्यवहार करते हैं । लसीरुह एक हस्तक लगे हुए दर्पण की तरह एक ओर गोल और एक ओर पूंछ जैसे देखे जाते हैं और एक स्थिर गति करते हुए पाये जाते हैं। एककोशीय कोशा कई कूट पादों ( pseudopodia ) से युक्त देखे जाते हैं। उनके कूट पाद किसी भी दिशा की ओर बढ़ते हुए मिलते हैं। ___ उपर्युक्त वर्णन से एक बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि इस रोग में जो सितकोशा रक्त में उपस्थित होते हैं वे जीर्ण सितरक्तताओं में उपस्थित पूर्ण प्रगल्भ सितकोशा न होकर भ्रौणिक ( embryonic ) प्रकार के सितकोशा होते हैं। मुख्यकोशा जो इसमें मिलता है वह बृहद् पीठरञ्ज्य ( basophil ) होता है। उसमें केवल एक ही तथा गोल न्यष्टि होती है। इस रोग में कुल सितकोशा १ लाख से ऊपर नहीं जाते । जिनमें ८० से ९९ प्रतिशत तक एक न्यष्टीय ( mononuclear) कोशा ही होते हैं। बहुन्यष्टीय ( polynuclear ) कोशा बहुत कम हो जाते हैं और वे सकलगणन का अधिक से अधिक १० प्रतिशत तक का निर्माण करते हैं। वे सभी क्लीबरज्य ( neutrophils ) होते हैं । कभी-कभी बृहल्लसीकोशा जिनको राइडरकोशा For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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