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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ४३ जीर्ण सकोशीय सितरक्तता ( Chronic lymphatic leukaemia ) हम यहाँ पहले जीर्ण सकोशीय सितरक्तता का ही वर्णन उपस्थित करेंगे और तीव्र सितरक्तता का वर्णन उसके पश्चात् दिया जायगा । यह प्रौढावस्था का रोग है और ४० वर्ष की आयु के पश्चात् प्रायः देखने में आता है । जीर्ण सकोशीय सितरक्तता में लसीय सितकोशा और उनके पूर्वजों की अत्यधिक वृद्धि होती है । इनकी जन्मभूमि शरीरस्थ सम्पूर्ण लाभ ऊति (lymp• hoid tissue) है । अस्तु, जिन जिन अंगों में यह ऊति पाई जाती है अब उनकी खूब वृद्धि होती है इस कारण इस रोग की मुख्य विशेषता मिलती है लसीका ग्रन्थियों प्लीहा तथा आन्त्र की लसीका कूपिकाओं ( lymphatic follicles of the intestinal tract ) की पर्याप्त वृद्धि में अंग खूब फूलते हैं । पर प्लीहा की वृद्धि उतनी नहीं होती जितनी मज्जाजन्य सितरक्तता में पाई जा चुकी है । उत्तरोत्तर दौर्बल्य, रक्तक्षय, श्लेष्मल कलाओं से रक्तस्राव की अतिशय प्रवृत्ति के लक्षण इस सितरक्तता में भी खूब पाये जाते हैं । लसकोशीय सितरक्तता में लसाभ कोशाओं (lymphoid cells) की प्रचुरता के साथ वृद्धि देखी जाती है । यह वृद्धि इतनी तक हो सकती है कि श्वेतकणों के सापेक्ष गणन करने पर ९९% तक वे मिल सकते हैं। वैसे सामान्यतया ९०% तो वे इस रोग में बढ़े हुए देखे ही जाते हैं । सकल गणन करने पर ५० सहस्र से १ लाख तक इनकी संख्या प्रतिघन मिलीमीटर पाई जाती है । यह संख्या मज्जाजन्य सितरक्तता की अपेक्षा कम रहती है । इस संख्या में ९०% लसीकोशाओं का रहता है 1 लसीकोशाओं में भी क्षुद्र लसीकोशा ( small lymphocytes ) मुख्यतया पाये जाते हैं । इस रोग में क्षुद्र लसीकोशा ही विशेष करके भाग लेता है । लसीरुह ( lymphoblasts ) तथा मज्जकोशा ( myelocytes ) आगे चलकर बढ़ने लगते हैं। इस रोग में रक्त के लालकर्णी की संख्या घटने लगती है । उनके घटने से जो रक्तक्षय बनता है वह उपवर्णिक प्रकार का ही होता है । यहाँ ऋजुरूहों की थोड़ी सी संख्या पाई तो जाती है पर मज्जाजन्य सितरक्तता की अपेक्षा बहुत कम रहती है । रक्त के लालकण घटते घटते १० लाख प्रतिघन मिलीमीटर तक रह जा सकते हैं । श्लेष्मलकलाओं, मसूड़ों, त्वचा तथा अन्य अंगों से रक्तस्त्राव होता रहता है जिसके कारण प्रशीताद ( scurvy ) की शंका चिकित्सक को हो सकती है पर रक्तपरीक्षण करने पर रोग की असलियत का पता लग जाता है । लसीकोशाओं का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उनमें कोशारस ( cytoplam ) बहुत कम होता है जिसके कारण अण्वीक्षण करने पर केवल नग्न न्यष्टिमात्र दिखलाई देती है तथा कोशारस में अरज्ज्यकण ( azurophil granules ) भी प्रायः नहीं मिला करते हैं । ग्रीन ने एक महत्त्व की बात इन क्षुद्र सितकोशाओं के बारे में यह बतलाई है कि रक्त चित्र का अण्वीक्षण या अवलोकन करने पर बहुत से क्षुद्र लसीकोशा मृतवत् दिखलाई देते हैं इन्हें सितचिह्न ( smudge ) कह कर उसने For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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