SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1006
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६१६ विकृतिविज्ञान कोशाओं का निर्माण रुक जाता है तथा रक्त के अन्दर नवीन कणों का सर्वथा अभाव हो जाता है, साथ ही उपवर्णता भी स्पष्ट देखी जाती है । रक्तस्रावजन्य रक्तक्षय को बहुधा लोग लोहाभावी रक्तक्षय के अन्तर्गत लेते हैं पर यह भी स्मरण रखना होगा कि लोहे की कमी महत्वपूर्ण होने पर भी ऊतियों के द्वारा शोणवर्तलि के प्रोभूजिनिक भाग के निर्माण में भी बहुत बड़ी कठिनाई पड़ती है विशेषकर यदि विक्षतों को स्थली महास्रोत का ऊर्ध्वभाग ही स्वयं हो तो । अतः शोणवर्तुल के निर्माण में भाग लेने वाले लोहे ( शोण ) और प्रोभूजिन ( वर्तुलि ) दोनों की कमी से ही यह रक्तक्षय उत्पन्न होता है । स्त्रियों में अत्यार्तव, असृग्दर, योनिज रक्तस्राव तथा उष्णकटिबन्ध में अङ्कुशमुख कृमि के कारण भी यह अवस्था उत्पन्न हो सकती है । नीलोहा ( Purpura ) त्वचा में रक्तस्त्राव का होना या श्लेष्मल कलाओं से रक्त निकलना अथवा आन्तरिक अंगों में रक्तच्याव होना जिस रोग के अन्तर्गत आते हैं उसे हम नीलोहा या परा कहते हैं । स्वचा में कहीं रक्तस्राव हुआ वह स्थान नीललोहित या परपिल पड़ जाता है, इसी वर्ण के अनुसार इसे नीलोहा या पप्र्च्यूरा कहा जाता है । के मुख्य भेद प्रथमजात ( primary ) तथा उत्तरजात ( secondary) दो होते हैं । प्रथमजात को बिम्बाण्वपकर्षकीय नीलोहा ( thrombocytopenic purpura ) कहते हैं । उत्तरजात प्रकार में वे सभी नीलोहा सम्मिलित हैं जो किसी तीव्र उपसर्ग अथवा किसी विशेष औषधि के प्रयोग के कारण होते हैं । आमवातीय नीलोहा, शूनलीनीय रोग, हैनकीय नीलोहा तथा बालनीलोहा आदि भी उत्तरजातीय प्रकार में आते हैं । प्रथमजात और उत्तरजात न कहकर बिम्बाण्वपकर्षजन्य तथा अबिम्बाण्वपकर्षजन्य ये दो प्रकार भी इसके किए जाते हैं। पर दोनों भाग एक दूसरे के इतने समान होते हैं कि यह भेद करना व्यर्थ हो जाता है । साधारणतया या प्राकृतिक रूप में रक्तस्थापन २ भागों में सम्पन्न होता है अर्थात् जहाँ रक्तस्त्राव हो रहा हो उस केशाल का संकोच होना जो क्षतिग्रस्त हुआ है । दूसरे वहाँ पर घनात्र की उत्पत्ति होना । बिम्बाणु या अबिम्बाणुजन्य नीलोहों में क्षतिग्रस्त केशाल ठीक ठीक या पूरा पूरा संकोच नहीं कर पाता और रक्तस्रवणकाल (bleeding time ) बढ़ जाता है। शोणप्रियता में केशालसंकोच तो ठीक ठीक होता है पर घनास्रोत्पत्ति नहीं होती इसलिए थोड़ी थोड़ी देर बाद रक्तस्राव होता रहता है । अस्तु लोहा को रक्त का रोग न मानकर केशाल का रोग मानना अधिक उपयुक्त है । केशाल के अन्तश्छद में कोई विकार होने पर रक्त के बिम्बाणु घनास्र बना लिया करते हैं पर देखा यह गया है कि इस रोग में बिम्बाणु भी कम हो जाते हैं। मानवशरीर में ये बिम्बाणु २|| से ४ || लाख प्रतिघन मि. मी. होते हैं पर नीलोहा के रोगियों में • इनकी संख्या ४० हजार प्रति घन मि. मी. के नीचे पाई जाया करती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy