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________________ Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts, Pt. XVIII ( Appendix ) CLOSING: OPENING जो रक्खइ परदब्बं दिन र हु देइ चोरियं करइ । प्रदिणं गिरहंतो सो मरि दुब्भागिनो होइ || २ || Jain Education International पररिणवसेण जो वो हिंडइ सव्वत्थ दुक्खिश्रो रिगच्चं । नरयं गए छुट्टइ लहरणादेखीय संबंधं ॥ ३॥ परदव्व महापावं जो रक्खइ लहरणयं च ण वि देइ । सो परभवम्म गिहइ, पुत्ता जह माहणा चउरो ||४|| रिग कस्सवि म धरिज्जहु, रिलाइ संबधो भमइ जीवो । जह माह चउपुत्ता, अवयरिया पुव्ववै रेरण || ५|| तथाहिसज्जण घट्ट म दुज्जरण तरी, घरि कुकलत्त म वेसाधरी । भिक्खा भोय म खवरणहं चरी, सूनी साल म चोरह भरी ।। ११० ॥ वर सुपुत्त इक्क इ जि, पर मा कुपुत्त सयाइ । कुल लज्जावहि धनहरहि, रोइ म तिन्ह मुयाह ॥ १११ ॥ संसालह एह सुप्रो जो प्रत्थि प्रत्थव्वणो चउत्थो य । इ कहिऊणं देवी गया, वियायास उप्पमियं ॥ ११२ ॥ इयमाहरणपुत्ताणं संबंधं जोइ ऊरण इय भविया । मा रक्खह कस्स रिणं, मा लहणं करह वित्तं च ।। ११३ ॥ COLOPHON इति रि सम्बन्धे गुण समुद्रब्राह्मणकथानकं समाप्तम् । Post-colophon : संवत् १६४१ वर्षे श्रावरण वदि १२ शुक्र दिने । श्राणंदरायगुरुणा, सीसेणं अभयचंदगणिखाए । माहरणच उपुत्ताणं कहा कियं ग्यार पनरसए ( १५११ ) ।। ११४ ।। 515 2058/7468 दीपमालिकाकल्प [पत्रांक २२ A से ] रखसंगीए ममीकर अहंकारंगीए अंतो सम्पज्जलंतबोंदी अहमहंति कयमाणे से अमुणियं समयं सव्वे गरणी भविसु एएणं श्रणं गोयमा ! से भयवं किण्णं सव्वेवि एवं विहे तक्कालं गरणीर्भावसु गोयमा ! गो तिरपट्टे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018050
Book TitleSanskrit and Prakrit Manuscripts Jaipur Collection Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay, Jamunalal Baldwa
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1984
Total Pages634
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationCatalogue
File Size20 MB
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