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________________ 12 प्रस्तावना है तो अब पुल के नीचे सवारी निकालने में बाधा ही क्या है ? महारावल को अपनी भूल का अहसास हुआ। उन्होंने सेठ थाहरूशाहजी को दुर्ग के परकोटे का निर्माण कराने के महद कार्य को सम्पन्न करने के उपलक्ष में उन्हें काछवा (कच्छवाहा ) की उपाधि प्रदान की। तब से उनके वंशज काछबा कहलाने लगे । उनके मोहल्ले का नाम आज भी काछवा पाड़ा है । कहते हैं कि दुर्ग के घाघरानुमा परकोटे के निर्माण के पश्चात् स्थानीय ब्राह्मणसमाज ने दुर्ग में आना जाना यह कह कर बन्द कर दिया कि पार्श्वनाथजी के घाघरे में हम नहीं आयेंगे। तब जैन समाज ने धार्मिक समन्वय का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लक्ष्मीनाथजी की प्रतिमा को दोनों मंदिर के बीच में सेतु पर स्थापित किया। तब से ब्राह्मण समाज ने अपना आवागमन पुनः प्रारम्भ किया । इस सम्बन्धित शिलालेख शान्तिनाथजी के मंदिर पर उपलब्ध है । थाहरूशाह जी की बादशाह अकबर से भेंट सेठ श्री थाहरूशाह भंसाली की ख्याति सूर्य की किरण की भांति दसों दिशाओं में फैलने लगी । बादशाह अकबर ने उन्हें दिल्ली बुलवाया । श्रेष्ठिवर्य ने उस समय बादशाह को नौ हाथी, पाँच सौ घोड़े व स्वर्ण मुद्राएं भेंट की । प्रसन्न हो बादशाह ने उन्हें 'रायजादा का खिताब दिया । तब से उनके वंशज राय भंसाली कहलाने लगे । लौद्रवपुर पाटन वर्तमान जैसलमेर से १० मील पश्चिम स्थित लौद्रवपुर लौद्र जाति के परमार राजपूतों की राजधानी थी । लौद्र परमारों की राज्यस्थली होने के कारण इसका नामकरण लौद्रवापुर हुआ । स्थानीय जन इसे अपभ्रंश रूप लुधरवा, अथवा लुद्रवा नाम से पुकारते हैं। लौद्रवपुर के दुर्ग के बारह प्रवेश द्वार थे। इसके अंतिम लौद्र शासक नृपभानु को भाटी देवराज ने सं० ९०० के लगभग पराजित कर उस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया व लौद्रवपुर को अपनी राजधानी घोषित किया। लौद्रवपुरविजय के संदर्भ में श्री नैनसी मेहता ने लिखा है कि 'नृपभानु (जसभाण) की पुत्री से भाटी देवराज का विवाह होना था । विवाह के बहाने भाटी देवराज सैनिकों की ही बारात बनाकर लौद्रवपुर पहुँचा तो लौद्र शासक को षड्यन्त्र का आभास हुआ। अतः उसने दुल्हे भाटी देवराज सहित मात्र सौ बारातियों को ही दुर्ग में प्रवेश की शर्त रखी । चतुर चालाक देवराज ने शर्त मानकर १२ दुल्हों व हर दुल्हे के साथ १०० Jain Education International बारातियों के रूप में सौ सैनिकों को दुर्ग के सभी १२ प्रवेश द्वारों से एक साथ प्रवेश करवा कर धोखे से दुर्ग पर अधिकार कर लिया । इन्हीं भाटी देवराज के वंश में राजा सगर हुए । उनके पुत्र श्रीधर व राजधर ने आचार्य जिनेश्वरसूरि के सान्निध्य में प्राचीन पार्श्वनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई । कालान्तर में रावल भोजदेव के राज्यकाल में जब उनके चाचा (बड़े पिता) रावल जैसल ने मोहम्मद गोरी की सहायता से लौद्रवा पर आक्रमण कर अधिकार जमाया तब यह प्राचीन जैन पार्श्वनाथजी का मंदिर क्षतिग्रस्त हुआ । तत्कालीन जैन समाज ने सुरक्षा की दृष्टि से उस समय निर्माणाधीन जैसलमेर दुर्ग में ले जाकर इस प्राचीन बालू रेत की बनी प्रभु पार्श्वनाथ की चमत्कारीक प्रतिमा को दुर्ग स्थित लक्ष्मण विहार में भव्य मंदिर बनवाकर प्रतिष्ठित किया । लौद्रवपुरस्थित इस प्राचीन पार्श्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार सेठ थाहरूशाहजी ने करवाया, किन्तु अपनी दूरदर्शिता का प्रदर्शन करते हुए उन्होंने इसे जीर्णोद्धार की संज्ञा दी। इस प्रकार मंदिर की प्राचीनता का आभास अक्षुण्ण रहा तथा इस धार्मिक मान्यता का सबल उदाहरण प्रस्तुत हुआ कि नूतन मंदिर के निर्माण से आठ गुणा लाभ प्राचीन मंदिर के जीर्णोद्धार में है । श्री समयसुंदर उपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध शत्रुंजयरास में लिखा है कि शत्रुंजय उपरि देहरउ नवउ नीपावई कोय । जीर्णोद्धार करावतां, आठ गुणउ फल होय ।। श्री सहस्रफणा चिंतामणी पार्श्वनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार से सम्बन्धित कुछ घटनाए यहाँ दर्ज हैं - लौद्रवा में, इस भव्य मंदिर के निर्माण के अन्तर्गत जब नीवें खोदी जा रही थी तब इस निर्माण के लिये नियुक्त सोमपुरा सेठ थाहरूशाहजी के पास आया । थाहरूशाहजी की पेढ़ी चढ़ने से पूर्व उसने देखा कि सेठ साहब जमीन पर गिरे एक बूंद घी को अपनी अंगुली पर लेकर जूती पर रगड़ रहे हैं। उन्होंने विचार किया कि जो व्यक्ति इतना कंजूस है कि एक बूंद घी भी नहीं छोड़ता, वह मंदिर का निर्माण क्या करायेगा ? अतः उसने सेठजी से निवेदन किया कि अगले दिन मंदिरजी के खाद मुहूर्त के लिये घी चाहियेगा । सेठ थाहरूशाहजी सोमपुरा के मंतव्य को समझ गये । उन्होंने अगले दिन बैलगाड़ी भर के घी के घड़े मिजवा दिये । सोमपुरा आश्चर्यचकित हुआ । उसने सेठजी से अपनी द्विविधा का निवारण चाहा । सेठजी ने कहा "वह जो एक बूंद घी नीचे गिरा था, उसे यदि वहीं छोड़ देता तो उससे सैंकड़ों चीटियां आती जो कि किसी के पाँव से कुचल दी जाती और हिंसा घटित होती, और जब उसे जूती पर रगड़ दिया तो उससे चमड़े की उम्र भी बढ़ गई और हिंसा भी बच For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org.
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
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