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________________ प्रस्तावना - 13 गई । इस प्रकार इस छोटी सी बात में छुपा गहरा रहस्य उद्घाटित हुआ व सेठ साहब । भार्या चापलदे पुत्र पवित्र चरित्र लौद्रवापत्तन कारित जीर्णोद्धार विहार मंडन श्री चिंतामणी ने अपने धर्म-विवेक का परिचय दिया । कहा जाता है कि लौद्रवा पार्श्वनाथ मंदिर की नींवे नाम पार्श्वनाथाभिराम प्रतिष्ठा विधायक प्रतिष्ठा समयाई सुवर्णभनिप्रदायक संघनायक करणीय घी से सिंचित है। देवगुरुसाधर्मिक वात्सल्य विधान प्रभासित सित सम्यक्त्वशुद्धि प्रसिद्ध सप्तक्षेत्रव्ययविहित श्री मंदिर में विराजित मूलनायक सहस्रफणा पार्श्वनाथजी की प्रतिमा के विषय में कहा जाता शत्रुजयसंघलब्धसंघाधिपतितिलक से थाहडूनामको द्विपंचाशदुत्तर चतुर्दशशत १४५२ गणधराणां है कि - श्री पुंडरीकादि गौतमानानां पादुका स्थानमजात पूर्वमचीकरत् स्वपुत्र हरराज मेघराज सहितः 'जब लौद्रवपुर में मंदिर जी का निर्माण कार्य सम्पन्न होने लगा तब थाहरूशाहजी को समेधमान पुण्योदयाय प्रतिष्ठितं च श्री बृहत् खरतरगच्छाधिराज श्री जिनराजसूरिराजः पूज्यमान चिंता हुई कि प्रतिमाजी तो अब तक आई नहीं है | थाहरूशाहजी उत्तम प्रतिमा की खोज चिरं नंदतात्। (एपिग्राफिया इंडिया द्वितीय खंड नं० २६ से) में थे कि एक दिन पाटण से दो शिल्पकार प्रभु की सहसफणी प्रतिमायें लेकर रथ पर निकले रोठ थाहरूशाहजी के इस भव्य छ री पालित संघ के आयोजन की प्रशंसा करते हुए थे । सेठ थाहरूशाहजी ने कसौटी पत्थर की बनी उन दो प्रतिमाओं में से एक को रथ समयसुन्दरजी महाराज ने अपने सुप्रसिद्ध शत्रुञ्जय रास में लिखा है - सहित स्वर्ण से बराबर तोल कर ले ली । एक प्रतिमा उनकी धर्म पत्नी कनकारे सेठानी 'भणसाली थिरू अति भलो ए, दयावनत दातार | से ।। ने द्विगुणित स्वर्ण से तोलकर लेने का विचार किया । परन्तु लोकापवाद को दृष्टिगत कर, सेनुज संघ करानीउ ए. जैसलमेर मझार ।।से।। कि लोग यह न समझ बैठे कि सेठजी से सेठानीजी आगे निकल गई हैं, उन्होंने वह प्रतिमा स्वर्ण के बराबर तोलकर ले ली । ये दोनों प्रतिमाएं दिखने में एक समान है कहते है कि उपसंहार वे दोनों शिल्पकार पिता-पुत्र थे । रायजायदा सेठ श्री थाहरूशाह भंसाली का जीवन जैन श्रावक वर्ग के लिये ही नहीं अपितु लौद्रवपुर का पार्श्वनाथ जैन मंदिर नलिनी विमान के आकार का अष्टभुजीय बना हुआ है। समस्त मानव समाज के लिये एक अनुकरणीय उदाहरण है । यहाँ एक और थाहरूशाहजी प्रवेश पर बना विशालकाय पैंतीस फुट लम्बा तोरण द्वार देखते ही बनता है । द्वार के अंग ने धनाढ्य होने के नाते मंदिर, उपाश्रय का निर्माण करवाया, जनकल्याण के कार्य सम्पन्न करवाये में इतनी बारीक शिल्पकारी की हुई है कि समग्रता में मानो मंदिर का ही रूप दिखाई पड़ता वहीं जैन आवक के मौलिक गुणों का परिचय देते हुए उन्होंने सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, है । श्रेष्ठिवर्य श्री थाहरूशाहजी ने संवत् १६९७ में मूल मंदिर के चारों दिशा में चार नूतन उपवास आदि अनेक तप किये । सं० १६५१ से १६८४ में बीच उन्होंने अनेक ग्रंथ लिपिबद्ध जिनालय की प्रतिष्ठा आचार्य श्री जिनराजसूरी की निना में करवाई । किये व करवाये । अनेक मूल्यवान ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियों के अन्त में 'थाहरू साहे थाहरूशाह जी ने लौद्रवा से पालीताणा छ: री पालित संघ निकाला संशोधितम् उल्लेख मिलता है | अध्यात्मरस निमग्न ज्ञानयोगी स्व० श्री जौहरीमलजी पारस का यह मत था कि तत्कालीन सभी हस्तलिखित ग्रंथों के अवलोकन के बाद यह कहा जा लौद्रवा में पार्श्वनाथजी के मूल मंदिर के निर्माण के पश्चात् सं० १६८२ की जेठ बदी सकता है कि सेठ थाहरूशाहजी की हस्तलिपि अत्यन्त सुन्दर थी । १० शुक्रवार के दिन खरतरगच्छ के आचार्य जिनराजसूरि के नेतृत्व में लौद्रवपुर से शत्रुजय महोपाध्याय श्री समयसुन्दरजी म. से सेठ' श्री थाहरूशाहजी के निकट सम्बन्ध रहे ।। का छ री पालित संघ निकाला । वहाँ २४ तीर्थंकरों व पुण्डरीक आदि उनके १४५२ गणधरों समयसुन्दरजीने अनेक स्तोत्रों में थाहरूशाहजी की प्रशंसा की है । के चरण युगलों की स्थापना का अपूर्व कार्य संपन किया, जिसका शिलालेख पालीताणा के श्री लौद्रवपुर सहस्रफणा पार्श्वनाथ स्तवन में दे कहते हैं कि - खरतरवसही में मिलता है, जो कि यथा स्वरूप नीचे दिया है - सीहमल नई सुत थाहरूसाह, परम घुरंधर अघि उच्छाहा || ॐ नमा श्री मारूदेवादि वर्द्धमानांत तीर्थकराणां श्रीपुंडरीकाद्य गौतम स्वामीपर्यंतेभ्यो जीर्णउद्धार रायो जास, सहसफणा चिंतामणी पास ४|| गणधरेभ्या सभ्यजनैः पूज्यमानेभ्यः सेव्यमानेभ्यश्च । संवत् १६८२ ज्येष्ठ यदि १० शुक्रे जैन सिद्धान्तों के अपने ग्रंथ; समाचारीशतकम् की लेख प्रशस्ति में समयसुन्दरजी ने थाहरूशाहजी श्रीजेसलमेरू वास्तव्योपकेशवंशीय भांडशालिके सुश्रावक कर्तव्यता प्रवीण धुरीण साश्रीमल्ल के परिवार की प्रशस्ति प्रकाशित की है व उसमें सेठसाहब की भूरि भूरि प्रशंसा करते हुए Jain Education International For Prve & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
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