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________________ पुण्यार्थ इस मंदिर का निर्माण करवाया है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रतिष्ठा के समय उनके पौत्र मूलचन्द भी थे इसके अतिरिक्त संघनायक के करने योग्य देवपूजा-गुरु उपासना साधर्मिवात्सल्य इत्यादि सभी प्रकार के धार्मिक कार्य किये थे । अतः यह मानना उपयुक्त होगा कि सेठ श्री थाहरूशाहजी का जन्म १७ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुआ । विक्रम संवत् १६९७ में सहस्रफणापार्श्वनाथ भगवान के मूल मंदिर के चारों दिशा में श्री आदिनाथ भ० श्री अजितनाथ भ० श्री संभवनाथ भ० एवं श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ भ० के चार नूतन जिनालयों में बिम्ब प्रतिष्ठाएं सेठ थाहरूशाहजी ने श्री जिनराजसूरिजी के द्वारा करवाई। अतः यह मानना उपयुक्त होगा कि सेठ थाहरूशाहजी का जीवनकाल १८ वीं शताब्दी तक तो रहा ही होगा । अन्य प्राप्त जानकारियों के अनुसार जं० यु० प्र० भट्टारक दादा साहब श्री जिनचन्द्रसूरि जी के आलेख, सेठ थाहरूशाहजी की अकबर से भेंट श्री जिनराजसूरि द्वारा प्रतिष्ठाओं के आलेख, श्री महोपाध्याय श्री समयसुंदरजी के काव्यों में थाहरूशाहजी के वर्णन आदि प्रसंगों से यह मान्यता पुष्ट होती है कि सेठ श्री थाहरूशाहजी १७ वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध श्रावक एवं प्रतिष्ठित व्यवसायी थे । व्यवसाय सेठ थाहरूशाहजी घी के व्यापार में संलग्न रहे । उनके लक्ष्मीपति बनने के विषय में यति श्रीपालजी ने अपनी पुस्तक 'जैन सम्प्रदाय शिक्षा में एक कथा दी है, जिसके अनुसारएक बार एक स्त्री (रूपसिया गाँव से) घी बेचने के लिए थाहरूशाहजी के पास आई । राह में उसने एक हरी बेल को उखाड़ कर उसकी इंदोणी (ईडरी) बनाई । इस इंढोणी पर घी की हांडी रखकर वह थाहरूशाहजी के दुकान आई । थाहरूशाह ने उससे घी खरीद लिया । दुकान पर भीड़ होने के कारण उस स्त्री ने थाहरूशाह से घी के पैसे तो लिये और 'हांडी बाद में खाली हो जाने पर ले जाउंगी ।' ऐसा कहकर वह चली गई। बाद में भीड़ मिट जाने पर उस हांडी में से थाहरूशाह घी निकालने लगे । जब घी निकालते बहुत देर हो गई और उस हांडी से घी निकलता चला गया तब थाहरूशाह को संदेह हुआ । उन्होंने सोचा इस हांडी में से इतना घी कैसे निकलता जा रहा है । जब इंकोणी पर से हांडी हटा कर देखा तो हांडी में घी दिखाई नहीं दिया । यह स्पष्ट हो गया कि यह प्रभाव इंदोणी का है। कई वर्षों तक यह इंदोणी थाहरूशाह के पास रही क्योंकि वह स्त्री वापिस हांडी लेने Jain Education International प्रस्तावना 11 कभी नहीं आई । इंदोणी के प्रभाव से थाहरूशाह लक्ष्मीपुत्र बन गये। वस्तुतः यह इंढोणी चित्राबेल की बनी थी । थार रेगिस्तान की कथा जनश्रुति है कि, सेठ थाहरूशाहजी की बढ़ती समृद्धि से जैसलमेर महारावल कल्याण अत्यन्त प्रसन्न थे। अनेक जनहित के कार्य सम्पन्न हो रहे थे। राज्य के कोष में कर की आय में अभिवृद्धि हो रही थी । थाहरूशाहजी की सम्पन्नता का रहस्य ज्ञात किया । महारावल को सावधान किया गया कि थाहरूशाह की बढ़ती शक्ति उनके लिये हानिकारक हो सकती है, जब कि यदि चित्राबेल को महारावल प्राप्त कर लें तो वे अपने राज्य एवं शक्तिमें बढ़ोतरी कर सकते है । थाहरूशाहजी को जब महारावल की दुष्कामना की सूचना हुई तो उन्होंने चित्रा बेल की इंकोणी को ले जाकर रेत में दबा दिया । फलतः जैसलमेर के इर्द-गिर्द रेत की अभिवृद्धि हुई । मरुभूमि का विस्तार बढ़ गया। तब से यह मरूस्थल थाहरूशाहजी के नाम पर थार रेगिस्तान कहलाने लगा । थाहरूशाहजी द्वारा जैसलमेर दुर्ग के परकोटे का निर्माण जैसलमेर दुर्ग के वर्तमान में लक्ष्मणविहारस्थित श्री पार्श्वनाथ भगवान के मंदिर एवं श्री अष्टापदजी के मंदिर के बीच एक पुल निर्मित है । इसी पुल के नीचे से जैसलमेर महारावल की सवारी निकला करती थी । जैन धर्मानुयायियों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित जैनंतर वर्ग के लोगों ने महारावल मनोहर दास को उकसाना चाहा और कहा कि 'अन्नदाता ! सुबह सुबह आपको जैन नारियों के घाघरे के नीचे से अपनी सवारी निकालनी होती है जो कि आपकी गरिमा के प्रतिकूल है।' महारावल ने आवेश में आकर जैन समाज से यह पुल गिराने को कहा। इस पर थाहरूशाहजी ने कहा 'अन्नदाता ! यह पुल तो पूजा अर्चना करने वाले नर-नारियों की सुविधा के लिये बना है अतः उसे तुड़वाना हमारी धार्मिक भावना को ठेस पहुँचाना होगा । अतः इसके एवज में जो सेवा आप कहें वह हम कर देंगे। वैसे भी दुर्ग की सुरक्षा के लिये कोई परकोटा नहीं है सो आपका आदेश हो तो बनवा दिया जाये महारावल इस सौदे पर राजी हो गये, सोचा कि परकोटा बनने के बाद पुल गिराया जा सकता है । थाहरू शाहजी ने दुर्ग के परकोटे का निर्माण करवा दिया । ९९ बुर्जों से युक्त दोहरी दीवार वाले इस दुर्भेद्य परकोटे का आकार घाघरे के घेरे की तरह गोल घुमता हुआ बनवाया गया । महारावल को यह अहसास कराया गया कि पूरे दुर्ग को ही जब घाघरे में घेर रखा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
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