SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 10- प्रस्तावना | आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी. ..महान् प्रभावक आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि विराजमान हुए । इनका जन्म सं. १४८७ में जैसलमेर निवासी चम्म गोत्रीय साह बच्छराज के घर हुआ । इनकी माता का नाम वाल्हादेवी था । सं. १४६२ में ये दीक्षित हुए | आपका जन्मनाम करना था और दीक्षा नाम कनकध्वज | सं. १५१५ ज्येष्ठ बदि द्वितीया के दिन कुंभजमेरु निवासी कुकड चोपड़ा गोत्रीय शाह समरसिंहकृत नन्दीमहोत्सव में श्री कीर्तिरत्नसूरिजीने पदस्थापना की । सं. १५१८ में जैसलमेर स्थित संभवनाथ जिनालय में मन्दिर निर्माता चोपड़ा परिवार मे शत्रुजयगिरनार-पट्टिकाएँ निर्माण कराके आपके करकमलों से प्रतिष्ठित करवाई । जयसागरोपाध्याय के प्राताओं ने अर्बुदाचल पर नवफण पार्श्वनाथ स्वामी के सर्वोच्च तिमंजिले खरतरवसही संझक जिनालय का निर्माण कराया जिसकी प्रतिष्ठा आपने ही की । श्री धर्मरत्नसूरि आदि अनेक मुनियों को आचार्यपदादि प्रदान करने वाले सूरि महाराज सिंघ, सौराष्ट्र, मालय आदि देशों में विचर कर सन् १५३६ में स्वर्गवासी जैसलमेर में हुए । ("जैसलमेर जुहारिये स्मारिका से उद्धृत) के भाटी राजपुत महारावल देवराज ने लौद्रं क्षत्रियों को परास्त कर इस बोत्र पर अधिकार कर लिया एवं लौद्रयपुर को अपनी राजधानी घोषित किया । इन्हीं के वंश में ११ वीं सदी में सगर हुए । उसके ग्यारह पुत्र थे, जिनमें आठ पुत्र मृगी नामक रोग से मृत्यु को प्राप्त हुए । राजकुमारों को बचाने का कोई भी उपाय सफल न होता देख राज्य के दीवान (मंत्री) ने राजा सगर को, खरतर विरुद प्राप्तकर्ता आचार्य श्री जिनेश्वरसरि के दर्शन करने का परामर्श दिया । सगर अपनी श्रीमती अन्य परिवार जन के साथ गुरुदेव के दर्शनार्थ गये । अपने आठ पुत्रों के अकाल मृत्यु के विषय में बताते हुए अपने जीवित तीन पुत्रों की दीर्घायु का आशीर्वाद मांगा | गुरु महाराज ने कहा - 'इससे हमें क्या लाभ ? राजा ने कहा - "जैसा आप कहेंगे वैसा होगा । गुरु महाराज ने कहा - "अपने एक पुत्र को राज्य दो और दो पुत्रों को हमारे श्रावक बना दो, सब ठीक होगा । राजा ने गुरु महाराज से प्रतिबोध पाकर कुलधर का राज्याभिषेक किया । श्रीधर व राजधर ने श्रावक धर्म अंगीकार किया । श्री जिनेश्वरसूरि से वासक्षेप प्राप्त करने के पश्चात् श्रीधर व राजधर ने श्री पार्श्वनाथजी के देरासर का निर्माण करवाया । श्री जिनेश्वरसूरि ने मंदिरजी की प्रतिष्ठा करी, भंडार की साल में वासक्षेप किया, इस प्रकार भण्डसाली गोत्र हुआ। श्रीधर की उन्नीसवीं पीढ़ी में थोहरूशाहजी हुए । उनकी माता का नाम चापलदे व पिता का नाम श्रीमल्लजी था । काल निर्धारण थाहरूशाहजी के जन्म संवत् का कोई आलेख सम्प्राप्त नहीं हुआ है । सं० १६७५ में उन्होंने लौद्रवपुर में सहस्रफणा पार्श्वनाथ भगवान के मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई थी । प्रतिष्ठा के समय प्रति मनुष्य एक एक सोने की मुहर दान में दी थी । मूलनायक जी के शिलालेख में खुदा हुआ है कि · श्री लौद्रवनगर श्री बृहत् खरतरगच्छाधीशेः स० १६७५ मार्गशीर्ष सुदी १२ गुरी भादशालोक श्रीमल्ल भार्या चापलादे पुत्ररल थाहरूसैन भार्या करकादे पुत्र हरराज, मेघराजादि पूतेव श्री चिंतामणिपार्श्वनाथबिंबका प्र० म० युग प्रधान श्री जिनसिंहसूरिपट्टालंकार म० जिनराजसूरिजी (6) प्रतिष्ठित उपरोक्त आलेख से यह प्रतीत होता है कि सहस्रफणापार्श्वनाथ भगवान की बिंब प्रतिष्ठा के समय थाहरूशाह जी के पिता भंसाली श्रीमल्लजी व माता चापलदे दोनों उपस्थित थे। थाहरूशाहजी की पत्नी कनकादे व पुत्र हरराज व मेघराज भी प्रतिष्ठा में सम्मिलित थे । एक शिलालेख पर यह अंकित है कि सेठ थाहरूशाह मे अपनी पत्नी, पुत्र तथा पौत्र के कच्छवाहा सेठ रायजादा श्री थाहरूशाह जी भणशाली) - श्री मनोज कुमार भंसाली 'चेतन' कच्छवाहा सेठ श्री थाहरूशाह भंसाली की गणना ओसवाल जाति के इतिहासपुरुषों में की जाती है । उनका जन्म विक्रम की १७ वीं शताब्दी में हुआ था । सेठ थाहरूशाह जी के व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हुए सुप्रसिद्ध विद्वान श्री पूर्णचन्द्रजी नाहर ने अपनी पुस्तक 'जैन लेख संग्रह भाग ३ पृ.१८ में लिखा है कि 'मेवाड के भामाशाह की तरह जैसलमेर में थाहरूशाह की भी विशेष ख्याति है । जैसलमेर के राजदरबार में उनका विशिष्ट स्थान था। धार्मिक संस्कारों से ओत-प्रोत वे एक दानवीर एवं कर्मवीर युगपुरुष थे । पारिवारिक पृष्ठभूमि वर्तमान जैसलमेर नगर से १० मील दूर. लौद्रवपुर एक ऐतिहासिक तीर्थस्थान है । लौद्रजाति परमार क्षत्रियों का यहां शासन था । इसी से इसका नाम 'लौद्रपुर' हुआ । लौद्रजाति के अंतिम शासक नृपभानु हुए । संवत् ९०० (घटियाला शिलालेखानुसार) के लगभग यादबकुल Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy