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________________ प्रस्तावना.. सुदि पूर्णिमा बुधवार को भणशाली नाल्हाशाह कारित नन्दी महोत्सव पूर्वक सूरिपद पर स्थापित | निर्माण कराये। उपर्यक्त स्थानों में शानभण्डार स्थापित कराने का गणित me किया था। इसमें सवालाख रुपये व्यय हुए थे । वे सात भकार ये है. भाणसोल नगर, किया था । इस जिनालय के तलघर में ही विश्वविश्रुत श्री जिनभद्रसूरि-शानभण्डार है जिसमें भयाणशालिक गोत्र, भादोनाम, भरणी नक्षत्र, भद्राकरण, भट्टारक पद और जिनभद्रसूरिनाम । प्राचीनतम ताडपत्रीय 100 प्रतियाँ सुरक्षित है । खंभात का भंडार परीक्षक (पारखगोत्रीय) धरणाक आपने जैसलमेर, देवगिरि, नागोर, पाटण, मांडवगढ़, आशापल्ली, कर्णावती, खंभात आदि ने तैयार कराया था । स्थानों पर हजारों प्राचीन और नवीन ग्रंथ लिखवाकर सुरक्षित भण्डार स्थापित किए जिनके लिए मांडवगढ के सोनिगिरा श्रीमाल मंत्री मंडल और धनदराज आपनी के परमभक्त विद्वान केवल जैन समाज ही नहीं किन्तु सारा साहित्य संसार भी चिरकृतज्ञ है । आपश्री ने आबू, श्रावक थे । इन्होने भी एक विशाल सिद्धान्तकोश लिखवाया था जो आज विद्यमान नहीं है, गिरनार और जैसलमेर के जिनालयों की और प्रचुर परिमाण में जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी पर पाटण भण्डार की भगवतीसूत्र की प्रशस्तियुक्त प्रति मांडवगढ के भण्डार की है। आपकी जिनमें सैंकड़ों प्रतिमाएं आज भी विद्यमान हैं । रचनाओं में जिनसत्तरी प्रकरण नामक २१० गाथाओं की प्राकृत रचना प्राप्त है । सन् १४८४ 3. जयसोमीय गुरुपर्वक्रम में छाजहठ गोत्रीय सा० धाणिक भार्या खेतलदे का पुत्र लिखा में जयसागरोपाध्याय ने नगर कोट कांगडा की यात्रा के विवरण स्वरूप विज्ञप्ति त्रिवेणी संज्ञक है, माता-पिता के नामों में तो उच्चारण भेद है । भणशाली गोत्र के तो पदोत्सव कारक नल्हिगशाह महत्वपूर्ण विज्ञप्तिपत्र आपको भेजा था । सन् १५०६ कार्तिक सुदि १३ को जैसलमेर के थे जिससे सात भकार समर्थित हो जाते है । श्री जिनभद्रसृरिजी का छाजहगोत्र ही ठीक चन्द्रप्रभजिनालय में प्रतिष्ठा की । है । शुक्लपक्ष की जगह कृष्णपक्ष लिखा है । बारह वर्ष की आयु में दीक्षित हुए और आचार्यपद श्रुतरक्षक आचार्यों में श्री जिनभद्रसूरिजी का नाम मूर्धन्य स्थान में है । खरतरगच्छ के के समय २५ वर्ष के थे । दादा संज्ञक चारों गुरुदेवों की भाँति आपके चरण व मूर्तियाँ अनेक स्थानों में पूज्यमान है। श्री भावप्रभाचार्य और कीर्तिरत्नाचार्य को आपने ही आचार्यपद से अलंकृत किया था । । श्री जिनभद्रसूरि शाखा(शिष्यपरम्परा) में अनेक विद्वान हुए है । खरतरगच्छ की वर्तमान में उभय सं० १५१४ मार्गशीर्ष कृष्ण ६ के दिन कुंभलमेर में आपका स्वर्गवास हुआ । भट्टारकीय, आचार्षीय, भावहर्षीय व जिनरंगसूरि आदि शाखाओं में आप ही पूर्व पुरुष है। आचार्य श्री जिनभद्रसूरिजी उच्चकोटि के विद्वान और प्रतिष्ठित प्रभावक हो गये हैं । उन्होंने आपश्री ने कीर्तिराज उपाध्याय को आचार्यपद देकर श्री कीर्तिरलसूरि नाम से प्रसिद्ध अपने ४० वर्ष के आचार्यत्व काल में अनेकों उन्नायक धर्मकार्य करवाये । विविध प्रान्त-नगरों किया था । ये नेमिनाथ महाकाव्यादि के रचयिता और बड़े प्रभावक आचार्य हुए है । इनके में विचरण कर जिनशासन की सर्वागीण उन्नति का विशेष प्रयल किया । जैसलमेर के संभवनाथ- गुणरत्नसूरि और कल्याणचन्द्रादि ५१ शिष्य थे । इनके माताओं और वंशजों ने जैसलमेर, जिनालय की प्रशस्तिगत अष्टकादि में आपके सद्गुणों की बड़ी प्रशंसा की गई है । अनेक जोधपुर, नाकोड़ा, बीकानेर (नाल) आदि अनेक स्थानों में जिनालय निर्माण कराये व अनेक स्थानों में शानमण्डार स्थापित करने का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । राउल श्री वैरिसिंह संघ-यात्रादि शासन प्रभावना के कार्य किये थे। श्री कीर्तिरलसूरि शाखा में (अनेक) विद्वान और त्र्यंबकदास जैसे नृपति आपके चरणों में भक्तिपूर्वक प्रणाम करते थे । सं १४९४ में इस कवि आदि हुए हैं, गीतार्थ शिरोमणि श्री जिनकृपाचंद्रसूरि, श्री जयसागरसूरि, छ, सुखसागर न निर्माण चोपडा गोत्रीय सा: हेमराज, पूना,दीता, पांचा के पुत्र शिवराज महाराज व विद्वान साहित्यकार कान्तिसागर आदि कीर्तिरत्नसूरि परम्परा में ही हुए है । लोला और लाखण ने करवाया था । राउल वैरिसिंह ने इन चारों भ्राताओं को अपने भाई श्री जयसागरजी को जो श्री जिनवर्द्धनजी के शिष्य थे, आपने ही स० १४७५ में उपाध्यायपद की तरह मान कर वस्त्रालंकार से सम्मानित किया था। सन् १४९७ में सरिजी के करकमलों से अलंकृत किया । ये बड़े विद्वान और प्रभावक हुए हैं | आबू तीर्थ की खरतरवसही दरडा से प्रतिष्ठा अंजनशलाका कराई । इस अवसर पर ३०० जिनबिम्ब, ध्वजदण्ड शिखरादिकी प्रतिष्ठा गोत्रीय सं. मंडलिक जो उपाध्याय जी के भ्राता थे, ने ही निर्माण करवाई थी । उपाध्यायजी हुई । इस ३५ पंक्तियों वाली प्रशस्ति का निर्माण जयसागरोपाध्याय के शिष्य सोमकुंजर ने की परम्परा में भी अनेकों विद्वान हुए हैं । उपाध्यायजी के निर्माण किए हुए अनेक ग्रंथ, स्तोत्र किया और पं. भानुप्रभ ने आलेखित किया । इस प्रशस्ति दशवीं में लिखा है कि आबू पर्वत स्तवनादि उपलब्ध है । पर श्री बर्द्धमानसूरि जी के वचनों से मंत्रीश्वर विमलशाह ने जिनालय निर्माण करवाया था। श्री जिनभद्रसूरिजी ने उज्जयन्त, चितौड़, जाउर और मांडवगढ़ आदि में उपदेश देकर जिनालय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
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