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________________ । सिद्धाचलमण्डनश्रीऋषभदेवस्वामिने नमः | श्री चिन्तामणिपार्श्वनाथाय नमः । श्री शङ्खेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । श्री महावीरस्वामिने नमः । श्री गौतमस्वामिने नमः । । पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयसिद्धिसूरीश्वरजीपादपद्मेभ्यो नमः । पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयमेघसूरीश्वरजीपादपद्मेभ्यो नमः । । पूज्यपादसद्गुरुदेवमुनिराज श्रीभुवनविजयजीपादपद्मेभ्यो नमः । -: प्रस्तावना : तीरथ ते नमुं रे 'जैसलमेर जुहारीये दुःख वारिये रे, अरिहंत बिंब अनेक उपाध्याय श्री समयसुंदरजी महाराजकी यह उक्ति सर्वत्र प्रसिद्ध है। जैन समाजमें जैसलमेर तीर्थके तौर पर तो प्रसिद्ध है ही, किन्तु वहाँ रहे प्राचीन ग्रंथ भंडारोंके कारण भी जैसलमेर विश्व में विख्यात है । इन ग्रंथभंडारोंके प्रति जैनों का आकर्षण हो यह स्वाभाविक ही है, किन्तु विश्वके प्राचीन साहित्य संशोधक विद्वानों व अनुसंधानकर्ताओं का भी अधिक आकर्षण रहा है । विशेषतः इस भंडार में विद्यमान ग्रंथोंको दिखाने के विषयमें वहाँ प्रवर्तमान अति कड़े नियमोंके कारण भंडारमें क्या है और कैसे कैसे ग्रंथ है यह जानने के लिए अति आकर्षण और कुतूहल विश्वके विद्वानोंमें रहा है । जैसलमेर भारतमें राजस्थानकी सीमा पर आये हुए जैसलमेर जिलेमें अक्षांश २६-५५ तथा रेखांश ७०-५४ पर बसा हुआ शहर है । उसमें भी भारत के विभाजन के बाद अभी पाकिस्तान की सीमा पर होने से राजकीय और सैनिकी दृष्टिसे उसका महत्व बहुतही बढ़ गया है । वहाँ का आकाश दिन-रात विमानोंकी कवायतसे हमेशा धमधमाता रहता है । वहाँ अनेक प्रकारकी हस्तकलाओंके कारण और वहाँ के मकानोंमे रहे पत्थरके अद्भुत सूक्ष्म विविध खुदाईकाम के कारण पर्यटकों का अत्यंत आकर्षण रहता है । जहाँ देखो वहाँ परदेशी पर्यटकों की टोलियां देखनेको मिलती है । खादीउद्योग भी वहाँ बड़े पैमाने पर चलता है । प्रवासियोंके लिए वहाँ स्थान स्थान पर अनेक होटलें भी खड़ी हो गई हैं। फिलहाल अंदाजन पचास साठ हजार की आबादीवाला जैसलमेर शहर विश्व के मानचित्र पर आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है । जैसलमेर शहरके ही एक तरफ के भागमें ऊंची विशाल टेकरी है । उसपर चारों ओर किला है । इस किलेमें जानेके लिए अनेक द्वार (पोल) है । इसलिए यह भाग किलेके नामसे पहचाना जाता है । इस किलेनें ही राजाका महल तथा राजसभा आदि थे जो आज भी है ही, लेकिन फिलहाल वहाँ के राजा किलेके बाहर आये हुए महलमें रहते है । इस बाहर के महलके साथ ही राजकुटुंब के सदस्यों के लिए मंदिर होनेसे यह 'मंदिर पेलेस' (मंदिर महल ) के नामसे पहचाना जाता है । इस किलेमें जैनोंके आठ प्राचीन मंदिर हैं। किलेमें ब्राह्मण तथा राजपूतोंकी बस्ती है। Jain Education International प्रस्तावना 3 जैनोंकी कोई बस्ती है ही नहीं । जैनी किलेके बाहर आये हुए अलग अलग पाडोंमें बसते है । कहा जाता है की, सौ देढसौ साल पहले वहाँ २७०० जैनोंके घर थे। फिलहाल तो ज्यादातर जैनी व्यापारके लिए बाहर चले जाने से लगभग २७ घर रहे है । किलेमें आठ जैनमंदिरोंमें से सात तो बिलकुल पास पास में ही है । कईमें तो एकमैसे दूसरे मंदिरमें जा सकते हैं । उसमें चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवानका मंदिर मुख्य है । उसमें से बायीं तरफ संभवनाथ भगवानके मंदिरमें और दायी तरफ शांतिनाथके मंदिरमें जा सकते है। बाहर निकलनेके बाद बायीं ओर अष्टापदजीका मंदिर है । उपर मंजिल पर शांतिनाथ भगवानका मंदिर है । श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवानके मंदिर से पहले चंद्रप्रभ भगवानका चौमुखजीवाला मंदिर है। उसमें तीन मंजिलें हैं । सर्वत्र चंद्रप्रम भगवान ही चौमुखजीके रुपमें बिराजमान है । प्रदक्षिणा (भमती) में भी लगभग सभी मंदिरोमें चंद्रप्रम भगवानकी मूर्तियाँ है । उसकी बगलमें ही आदिनाथका मंदिर है जिसमें अनेक प्रकारके पट आये हुए हैं । उसके बाहर स्नानागारकी नजदीकमें ही मेहमान स्वरूप विराजमान सीमंधरस्वामी आदि अनेक भगवानकी प्रतिमायें पवासन पर विराजमान है। सीमंधर स्वामी, संभवनाथ भगवान और शांतिनाथ भगवानके मंदिरोमें प्रदक्षिणा (भमती) नहीं है । किलेमें प्रवेश करने के बाद राजमहलकी नजदीक की गलिमें श्री महावीरस्वामी भगवानका छोटा मंदिर है । इन मंदिरोंगे पट, तोरण, स्तंभ आदि पर खुदाई की हुई प्रतिमाओंकों मिलाकर छोटी मोटी लगभग छः हजार प्रतिमाएँ है । चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवानके मंदिरकी बगल में जो संभवनाथ भगवान का मंदिर है उसके तलघरमें पार्श्वनाथ भगवानकी नीलमकी प्रतिमा तथा सच्चे मोती जडे हुए सिद्धचक्रजीके प्राचीन गट्टे तथा अन्य कई चित्र तथा हस्तलिखित ताडपत्रोंके थोडे बहुत नमुने शीशेकी दर्शनीय पेटीयोंमें (शो केसमें) रखे गये हैं । एक दर्शनीय पेटीमें दादा गुरुदेव श्री जिनदत्तसूरिजीके अग्निसंस्कारके समय नहीं जले हुए वस्त्र ओघा आदि भी रखे गये हैं। इस तलघरमें से दूसरे तलघरमें जाया जाता है। उसमें कागज के हस्तलिखित ग्रंथ अलमारियोंमें रखे गये हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.018010
Book TitleJesalmer ke Prachin Jain Granthbhandaron ki Suchi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year2000
Total Pages665
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size14 MB
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