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________________ - अङ्गचूलिका से एकादशाङ्गी शोभित होती है, इसलिए निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियों को ये जानने के लायक हैं और गुरुपरंपरागम से ग्रहण करने के योग्य है"। फिर जम्बूस्वामी ने पूछा कि-'"गुरुपरंपरागम कैसा?" उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने कहा कि-"आगम तीन प्रकार के हैं-१ अन्तागम, 2 अनन्तरागम, और 3 परंपरागम / अर्थ से तो अर्हन् भगवान् का अन्तागम है, और सूत्र के गणधरों का अन्तागम है / तदनन्तर गणधरशिष्यों का अनन्तरागम है, उसके बाद सभी का परंपरागम है " / और अङ्गचूलिका के अन्त में उपाङ्गचूलिका की चर्चा है कि सुधर्मास्वमी जम्बूस्वामी से कहते हैं कि- "सेसं उवंगचूलिया तो गहेयव्वं" अर्थात् अवशिष्ट भाग उपाङ्गचूलिका से लेना चाहिए। छः छेदग्रन्थों के नाम और उनकी ग्रन्थसंख्या १-निशीथ सूत्र, उद्देश 20, मूलश्लोकसंख्या 815, और इस पर लघुभाष्य 7400, और जिनदासगणिमहत्तरविरचित चूर्णि 28000, बृहद्भाष्य 12000 है, यह टीका के नाम से ही प्रसिद्ध है। भद्रबाहुस्वामी की बनाई हुई नियुक्ति गाथाएँ हैं। संपूर्ण ग्रन्थसंख्या 48215 है। शीलभद्रसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि ने वि०सं० 1174 में व्याख्या की है। जिनदासगणिमहत्तर ने अनुयोगद्वारचूर्णि, निशीथचूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य, आवश्यकचूर्णि इत्यादि अनेक ग्रन्थ बनाए हैं। 2- महानिशीथ सूत्र, अध्ययन 7, चूलिका 2, मूलश्लोसंख्या 4500, मतान्तर में इसकी तीन वाचनाएँ हैं-१ लघुवा–चना; ४२००:२--मध्यवाचना 4500 ३-बृहद्वाचना 11800 है। किन्तु हमारी पुस्तक के अन्त में लिखा है कि "चत्तारि सयसहस्सा, पंचसयाओ तहेव पंचासं / चत्तारि सिलोगा वी, महानिसीहम्मि पाएणं" ||1||4554|| 3- बृहत्कल्पसूत्र, उद्देश 6, मूलसंख्या 473 है / इसपर सं० 1332 में बृहच्छालीय श्रीक्षेमकीर्तिसूरि ने 42000 संख्या परिमित टीका बनायी हैं। भाष्य जिनदासगणिमहत्तरकृत 12000, लघुभाष्य 800, चूर्णि 14325, संपूर्णग्रन्थ-संख्या 76768 हुई / टीका में लिखा हुआ है कि-कः सूत्रमकार्षीत्, को वा नियुक्तिं, को वा भाष्यमिति? उच्यते--पूर्वेषु यन्नवमं प्रत्याख्याननामकं पूर्वं तस्य यत्तृतीयमाचाराख्यं वस्तु तस्मिन् विंशतिनामप्राभृते मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वाऽपराधेषु दशवि-धमालोचनादिकं प्रायश्चित्तमुपवर्णितं, कालक्रमेण च दुषमानुभावतो धृतिबलवीर्यबुद्ध्यायुःप्रभृतिषु परिहीयमानेषु पूर्वाणि दुरवगाहानि जातानि ततो मा भूत प्रायश्चित्तव्यवच्छेद इति साधूनामनुग्रहाय चतुर्दशपूर्वधरेण भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पसूत्रं, व्यवहारसूत्रं चाकारि; उभयोरपि च सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति] 4- व्यवहारदशाकल्पच्छेद सूत्र, उद्देश 10, दो खण्ड, मूलश्लोकसंख्या 600, टीका मलयगिरिकृत 33625, चूर्णि 10361, भाष्य 6000 है। नियुक्ति की संख्या अज्ञात है। संपूर्ण ग्रन्थ संख्या 50586 है। 5- पञ्चकल्पच्छेद सूत्र, अध्ययन 16, मूलसंख्या 1133, चूर्णि 2130, और दूसरी टीका की संख्या 3300, भाष्य 3125, संपूर्ण संख्या 6388, और गाथासंख्या 200 है। 6. दशाश्रुतस्कन्धछेदसूत्र, मूलसंख्या 1835, अध्ययन 10, चूर्णि 2245, नियुक्तिसंख्या 168, संपूर्णसंख्या 4248 है। टीका श्रीब्रह्मविरचित है, इसका आठवाँ अध्ययन कल्पसूत्र 1216 है जिसकी टीका कल्पसुबोधिका है (अर्थतो भगवता वर्द्धमानस्वामिना असमाधिस्थानपरिज्ञानपरमार्थ उक्तः, सूत्रतो द्वादशस्वङ्गेषु गणधरैः, ततोऽपि च मन्दमेधसामनु-ग्रहाय अतिशायिभिः प्रत्याख्यानपूर्वादुद्धृत्य पृथक् दशाध्ययनत्वेन व्यवस्थापितः / दशाध्ययनप्रतिपादको ग्रन्थो दशा, स चासौ श्रुतस्कन्धः / दशाकल्प इति पर्यायनाम / अयं च ग्रन्थोऽसमाधिस्थानादिपदार्थशासनाच्छास्त्रम् / अस्याष्टमाध्ययनं कल्पसूत्रमुच्यते, टीका चास्य कल्प-सुबोधिकेति।)
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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