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________________ दृष्टान्तश्चान्यत्रापि- 'ण' शब्दो वाक्यालङ्कारार्थः / यथा- 'इमाणं पुढवी' इत्यादि। यह पक्षान्तर भी उनके मत से स्थित है। ५-व्यवहार, बृहत्कल्प, आवश्यकचूर्णि और निशीथ सूत्र, पं०भा०, पं०चूल आदि में प्रायः करके विशेष रूप से सूत्र नियुक्ति और चूर्णि में 'तदोस्तः // 84307 / / इस से और आर्षत्वाद् भी वर्णान्तर के स्थान में तकार हो जाता है, जैसे तृ० भा० "किइकम्म' शब्द के 514 और 515 पृष्ठ में बृहत्कल्प की नियुक्ति है कि-"ओसंकं भे दृटुं, संकच्छेती उ वातगो कुविओ" यहाँ पर शड्काछेदी की दकार को तकार और वाचक की चकार को तकार किया है। इसी तरह "इय संजमस्स वि वतो, तस्सेवठ्ठा ण दोसा य"|| इस गाथा में भी व्यय शब्द की यकार को भी तकार किया है। इसी तरह तृ०भा० 506 पृष्ठ के 'काहिय' शब्द पर निशीथ सूत्र की नियुक्ति और चूर्णि की व्यवस्था है, जैसे 'तक्कम्मो जो धर्म, कधेति सो काधितो होई // 13 // इस नियुक्तिगाथा की चूर्णि है कि- 'एवंविधो काहितो भवति'। यहाँ पर भी काथिक के ककार को तकार किया हुआ है, इसी तरह अन्यत्र भी समझना चाहिये / थकार को धकार तो 'थो धः ||64 / 267 / / और 'अनादौ स्वरादसंयुक्तानां कगतयपफां गधदधवभाः४३९६ा इत्यादि सूत्रों से होता है। ६-संस्कृत शब्दों की सिद्धि तो पचास अक्षरों से है, परन्तु प्राकृत शब्दों की सिद्धि चालीस ही अक्षरों से होती है, क्योंकि स्वरों में तो ऋ, ल, ऐ, औका अभाव है और व्यञ्जन में श, ष, तथा असंयुक्त ङ, आदि कई व्यञ्जनों का अभाव है। १०-व्यञ्जनान्त शब्दों के व्यञ्जन का 'अन्त्यव्यञ्जनस्य लुक्'८1१1११।। इस सूत्र से लुक् होजाने पर किसी शब्द का तो व्यञ्जनान्तत्वही नष्ट हो जाता है और किसी किसी का अजन्त में विपरिणाम हो जाता है, इसीलिए हलन्त शब्दों की सिद्धि के लिये कोई विशेष नियम नहीं है, केवल 'आत्मन्' शब्द और 'राजन्' शब्द की सिद्धि के लिये जो थोड़े से नियम हैं उन्हीं से अन्य नकारान्त शब्दों की भी व्यवस्था की जाती है। ११-यदि किसी ग्रन्थ का पाठ कुछ बीच में छोड़कर फिर लिया है तो जहाँ से पाठ छूटा है वहाँ पर उसी ग्रन्थ का नाम इस बात की सूचना के लिए चलते हुए पाठ के मध्य में भी दे दिया है कि पाठक भ्रम में न पड़ें। 12- प्राकृत भाषा में हिन्दी भाषा की तरह द्विवचन नहीं होता, किन्तु "द्विवचनस्य बहुवचनं नित्यम्' ||8 / 3-130 / / इस सूत्र से द्विवचन के स्थान में बहुवचन हो जाता है, इसलिए द्वित्वबोधन की जहाँ कहीं विशेष आ जाता है; और चतुर्थी के स्थान में षष्ठी "चतुर्थ्याः षष्ठी" ||8/3.131 / / इस सूत्र से होती है। 13- गाथाओं में पाद पूरे होने पर यदि सुबन्त अथवा तिङ्न्त रूप पद पूरा हो जाता है तो (.) यह चिह्न दिया जाता है और जहाँ पाद पूरा होने पर भी पद पूरा नहीं होता है वहाँ [-1 ऐसा चिह्न दिया है। 14- बहुत सी जगह गाथाओं में शुद्ध या व्यञ्जनमिश्रित एकार स्वर आता है किन्तु उसकी दीर्धाक्षर में परिगणना होने से जो किसी जगह मात्रा बढ़ जाती है, उसको कम करने के लिये [ ] ऐसा चिन्ह दिया गया है। यद्यपि 'दीर्घ हस्वौ मिथो वृत्तौ // 14|| इस सूत्र से हस्व करने पर एकार को इकार हो सकता है, किन्तु वैसा करने से सर्वसाधारण को उसकी मूल प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए ह्रस्वबोधक संकेत दिया गया है, इसी तरह व्याकरणमहाभाष्य में भी लिखा है कि-"अर्ध एकारः, अर्ध ओकारो वा इति राणायनीयाः पठन्ति'। और वाग्भटविरचित प्राकृत पिङ्गलसूत्र में भी लिखा है कि "दीहो संजुत्तपरो, विन्दुजुओ पाडिओ अ चरणंते। स गुरू वंक दुमत्तो, अण्णो लहु होइ सुद्ध एक्ककलो"||
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size
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