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________________ इस तरह गुरु लघु की व्यवस्था करके लिखते हैं कि 'कत्थ वि संजुत्तपरो, वण्णो लहु होइ दंसणेण जहा। परिहसइ चित्तधिलं, तरुणिकडक्खम्मि णिव्युत्तं' / दूसरा अपवाद-'इहिकारा विन्दुजुआ, एओ सुद्धा अवण्णमिलिआ वि लहू। रहवंजणसंजोए, परे असेसं पि सविहासं' (इकारहिकारी बिन्दुयुतो एऔ शुद्धौ च वर्णमिलितावपि लघू / रेफहकारी, व्यञ्जनसंयोगे परेऽशेषमपि सविभाषम् / / यदि दीर्घमपि वर्ण लघु जिह्वा पठति सोऽपि लघुः / वर्णी अपि त्वरितपठिती दी त्रयो वा एक जानीत // ) / उदाहरण- 'माणिणि ! माणहि काइँ फल, ऍऑ जे चरण पडु कन्त / सहजे "भुअंगम जइ णमइ, किं करिए मणिमन्त?' दूससी विकल्प- 'जइ दीहो वि अ वण्णो, लहु जीही पढइ सो वि लहू / वण्णो वि तुरियपढिओ, दो तिण्णि वि एक्क जाणेहु" यदि दीर्घमपि वर्ण लघु जिह्वा पठति सोऽपि लघुः / वर्णी अपि त्वरितपठितौ द्वौ त्रयो का एकं जानीत / / || उदाहरण- 'अरे रे वाहहि कान्ह ! णाव छोटि डगमग कुगति ण देहि। तइ इथि णदिहि सँतार देइँ, जो चाहसि सो लेहि // छन्द की परम आवश्यकता- 'जेमें न सहइ कणअतुला, तिलतुलिअं अद्धअद्धेण / तेम ण सहइ सवणतुला, अवछंद छंदभंगेण" | 15- कहीं कहीं गाथाओं में शब्दों के आद्यन्त स्वर को 'लुक्' |8/1/10 // सूत्र से लोप कर डालते हैं, और कहीं आर्षत्वात् भी लोप करते हैं जैसे एक उदाहरण तृ०भा० 556 पृष्ठ में 'किरियावाइ (ण)' शब्द पर सूत्रकृताङ्ग की गाथा है कि- "गई च जो जाणणागई च"। इसी तरह अतीत के स्थान में 'तीत' लिखा करते हैं, और प्र० भा० 786 पृष्ठ में अवच शब्दपर 'वेतियरे अझं तू' और 772 पृष्ठ में 'अलाभपरीसह शब्दपर 'अलाभए होउदाहरणं' इत्यादि समझना चाहिए। 16- प्रायः बहुत से स्थल पर 'से णूणं' इत्यादि मूलपाठों में 'से' शब्द आया करता है, उस पर भ० 13-1-3 (स्था० 562-2-5) में लिखा है कि- "से शब्दो मागधीदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थः, क्वचिदसावित्यर्थे, क्वचित्तस्येत्यर्थे प्रयुज्यते। प्रकीर्णक विषय 1- ज्योतिष्करण्ङक में लिखा है कि स्कन्दिलाचार्य की प्रवृत्ति समय में दुःषम आरा के प्रभाव से दुर्भिक्ष पड़ जाने पर साधुओं का पढ़ना गुणना सब नष्ट होगया, फिर दुर्भिक्ष शान्त होने पर जब दो संघों का मिलाप हुआ (जो एक मथुरा में और दूसरा वलभी में था) तब दोनों के पाठ में वाचना भेद हो गया, क्योंकि विस्मृत सूत्रार्थ के पुनः स्मरण करके संघटन में अवश्य वाचनाभेद हो जाता है। २-विशेषावश्यक भाष्य आदि कई ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि 'आर्यवर' के समय तक अनुयोगों का पार्थक्य नहीं हुआ था, क्योंकि उस समय व्याख्याता और श्रोता दोनों तीक्ष्ण बुद्धिवाले थे, किन्तु 'आर्यरक्षित' के समय से अनुयोगों का पार्थक्य हुआ है, यह बात प्रथम भाग में 'अज्जरक्खिय' शब्द पर और 'अणुओग' शब्द पर विस्तार से लिखी हुई है।
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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