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________________ आवश्यक कतिपय सङ्केत१- प्राकृतशैली से अनुस्वार और मकार(गाथाओं में) समस्त दो शब्दों के मध्य में आया करता है, इसलिए अनेक स्थल पर (टीका में) लिखा रहता है कि 'अनुस्वारोऽत्रालाक्षणिकः' तथा 'मकारोऽत्रालाक्षणिकः' जैसे प्र०भा० 528 पृष्ठ में 'असज्झाइय' शब्द पर बृ० की गाथा है- 'पंसुयमंसयरुहिर-केससिलावुट्ठि तह रओघाए' / यहाँ समस्त 'रुहिर' शब्द में भी अनुस्वार है। और 375 पृष्ठ में 'अणुजाण' शब्द पर "सीलेह मंखफलए, इयरे चायंति तंतुमादीसु"। यहाँ 'तन्त्वादिसु' का 'तंतुमादीसु' हुआ / और तृ०भा०६०३ पृष्ठ में भी 'कुसमयमोहमोहमइमोहिय'- 'कुसमयौघमोहमतिमोहित' इस शब्द पर लिखा कि- 'मकारस्तु प्रकृतत्वात्। इस पाठ से भी यह बात सिद्ध होती है। 2- 'बहुत सी जगह गाथाओं में दीर्घ को हस्व, और ह्रस्व को दीर्घ हुआ करता है, उसका कारण यह है कि ऐसा करने से गाथाओं के बनाने में बहुत सुगमता होती है, इसीलिए कहा गया है कि- "अपि माषं कुर्यात् छन्दोभङ्गं न कारयेत्"। और व्याकरणकार भी "दीर्घहस्वौ मिथो वृत्तौ ||14|| इस सूत्र से इस बात का अनुमोदन करते हैं। जैसे 'साहू' को 'सहूं''और' विरुज्झइ (ति) का "विरुज्झई [ती)' होता है। ३-कहीं कहीं प्राकृतशैली से अनुस्वार का लोप भी होता है, जैसे विशेषावश्यक भाष्य के 2086 गाथा में "समवाइ असमवाई, छविह कत्ता य कम्मं च // " (छव्विह त्ति) अनुस्वारस्य लुप्तस्य दर्शनात् / प्रायः करके नियुक्तिकार अपनी गाथाओं में इस नियम को विशेष रूप से काम में लाये हैं, इसलिये उनको गाथा बनाने में अत्यन्त सुगमता हुई है। जैसे तृ० भा० 517 पृष्ठे 'किइकम्म' शब्द पर आवश्यकनियुक्ति है कि- 'गुरुजण वंदावंती, सुस्समण जहुत्तकारिं च // 33 / / इसकी वृत्ति में लिखा है कि 'अनुस्वारलोपोऽत्र द्रष्टव्यः / 4- प्राकृतशैली से कहीं कहीं बहुवचन के स्थान में भी एकवचन हुआ करता है, जैसे आवश्यकवृत्ति के पाँचवें अध्ययन में 'भरतैरवतविदेहेषु' के स्थान में "भरहेरवयविदेहे ऐसा एकवचन किया है। ५-प्रायः सूत्रों में और नियुक्तिगाथाओं में जो निर्विभक्तिक पद आया करते हैं उनमें "स्यम्-जस्-शसा लुक्" ||84|344 // तथा 'षष्ठ्याः ||4|345|| इन सूत्रों से अथवा सौत्र सुप् का लोप समझना चाहिए। जैसे तृतीय भाग के 446 पृष्ठ में उत्त०२४ अ०। का मूलपाठ है कि-"उल्लंघण पल्लंघण" इत्यादि / और इस पर टीकाकार लिखते हैं कि 'उभयत्र सौत्रत्वात् सुपो लुक्' इसी तरह अन्य स्थल में भी समझना चाहिये। 6- सूत्रों में बाहुल्य से प्रथमा के एक वचन में 'अतः सेझैः / / 8 / 3 / 2 / इस सूत्र को न लगाकर "अत एत्सौ पुंसि मागध्याम्" ||8 / 4 / 227 / / इस सूत्र से एकार ही किया गया है, जैसे तृ० भा०४६० पृष्ठ में है कि- "आहारए दुविहे पण्णत्ते"। इस पर टीकाकार की टीका है कि 'आहारको द्विविधः प्रज्ञप्तः। इसी तरह नियुक्तिगाथाओं में भी समझना चाहिए-जैसे "वाहे" का अनुवाद 'व्याधः' है। 7- प्रायः करके सूत्रों में आया करता है कि- "तेणं कालेणं तेणं समएणं" और इसपर टीकाकार लिखा करते हैं कि "तस्मिन् काले तस्मिन् समये" इसको हेमचन्द्राचार्य भी सिद्धहेमव्याकरण के अष्टमाध्याय-तृतीयपाद में "सप्तम्या द्वितीया" |8 / 3 / 137 / / इस सूत्रपर अनुमोदन करते हैं कि 'आर्षे तृतीयाऽपि दृश्यते / यथा-'तेणं कालेणं तेणं समएणं' अस्यार्थः-- 'तस्मिन् काले तस्मिन् समये'। किन्तु रायपसेणी के टीकाकार मलयगिरि लिखते हैं कि 'ते इति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन्निति द्रष्टव्यम्' णमिति वाक्यालङ्कारे।
SR No.016143
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1078
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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