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________________ वेदान्त] ( ५३७ ) [ वेदान्त इस सिद्धान्त के अनुसार जीव और ब्रह्म एक हैं, दोनों में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। इसे ही उपनिषदों में 'तत्त्वमसि' कहा गया है, जिसका अर्थ है जीवात्मा और ब्रह्म की एकता। आत्मा-अद्वैत वेदान्त का मूल उद्देश्य है 'परमार्थ सत्ता रूप ब्रह्म की एकता तथा अनेकान्त जगत् की मायिकता की सिद्धि' । इस सिद्धान्त में आत्मज्ञान की स्वयंसिद्धि अत्यन्त मौलिक तथ्य है। अनुभव के आधार पर आत्मा की सत्ता स्वतः सिद्ध होती है, क्योंकि जगत् के सारे व्यवहार अनुभव के ही आधार पर परिचालित होते हैं। विषय का अनुभव करते हुए चेतन विषयी की सत्ता स्वतः सिद्ध हो जाती है, क्योंकि जब तक ज्ञातारूप आत्मा की सत्ता नहीं मानी जाती तब तक विषय का ज्ञान संभव नहीं होता। शंकर के अनुसार मात्मा ही प्रमाण आदि सभी व्यवहारों का आश्रय है। आत्मा की सत्ता इसी से जानी जाती है कि प्रत्येक व्यक्ति आत्मा की सत्ता में विश्वास करता है। कोई भी ऐसा नहीं है जो यह विश्वास करे कि मैं नहीं हूँ। आत्मा के अभाव में किसी को भी अपने न रहने में विश्वास नहीं होता। अतः आत्मा स्वतः सिद्ध है। वेदान्त अत्यन्त व्यावहारिक दर्शन है जिसने संसार के कण-कण में एक ब्रह्मतत्व की सत्ता को स्वीकार कर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की शिक्षा दी है। यह विश्व के भीतर प्रत्येक जीव या प्राणी में ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करता है तथा विषयसुख को सणिक या भ्रम मानकर आध्यात्मिक सुख या ब्रह्मसुख को शाश्वत स्वीकार करता है। वेदान्त के अनुसार प्रत्येक जीव अनन्त शक्तिसम्पन्न है, इस प्रकार का सन्देश देकर वह जीव को आगे बढ़ने की शिक्षा देता है । जीव को ब्रह्म बताकर वह नर को नारायण बना देता है। वेदान्त-साहित्य-वेदान्त का साहित्य पाण्डित्य एवं मौलिक विचार की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । आचार्य शंकर ने अद्वैतवाद के प्रतिपादन के लिए 'ब्रह्मसूत्र', उपनिषद् एवं 'गीता' पर भाष्य लिखा था। शंकराचार्य के समकालीन विद्वान् मंडनमिश्र ने अनेक विषयों पर पाण्डित्यपूर्ण मौलिक ग्रन्यों की रचना की है। इनका वेदान्तविषयक ग्रन्थ है 'ब्रह्मसिद्धि' । वाचस्पतिमिश्र ने शंकर प्रणीत ब्रह्मसूत्र के भाष्य के ऊपर 'भामती' नामक पाण्डित्यपूर्ण भाष्य लिखा है। इनका समय नवम शती है। सुरेश्वराचार्य ने उपनिषद् भाष्य पर वात्तिकों की रचना की है । इनका 'वृहदारण्यकभाष्य' अत्यन्त प्रौढ़ एवं विशालकाय ग्रन्थ है । सुरेश्वर शंकर के शिष्य थे। सुरेश्वराचार्य के शिष्य 'सर्वज्ञात्ममुनि' की ब्रह्मसूत्र के ऊपर 'संक्षेपशारीरक' नामक पद्यबद्ध ध्यास्या है। इस पर नृसिंहाश्रम ने 'तस्वबोधिनी' तथा मधुसूदन सरस्वती ने 'सारसंग्रह' नामक व्याख्या-ग्रन्थ लिखे हैं। 'नैषधचरित' महाकाव्य के प्रणेता श्रीहर्ष ने न्याय की शैली पर 'खण्डनखण्डखाच' नामक उच्चस्तरीय ग्रन्थ की रचना की है। शंकर मिश्र जैसे नैयायिक ने इस पर टीका लिखी है। चित्सुखाचार्य की ( १३ वीं शताब्दी) प्रसिद्ध रचना 'तत्त्वदीपिका' वेदान्त-विषयक प्रख्यात ग्रन्थ है। इनके अन्य ग्रन्थ है
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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