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________________ वेदान्त ] ( ५३६ ) [वेदान्त .तत्त्वमीमांसा-वेदान्त में ब्रह्म शब्द परमतत्त्व या मूल सत्ता के रूप में प्रयुक्त हुआ है तथा सृष्टिकर्ता के अर्थ में भी। ब्रह्म और ईश्वर दोनों पृथक् तत्त्व न होकर एक ही हैं । इसमें ईश्वर की सत्ता का ज्ञान श्रुति के आधार पर किया गया है, युक्ति पर नहीं। वेदान्त के अनुसार ईश्वर के सम्बन्ध में वैदिक मत ही प्रामाणिक है और वेदान्ती श्रुति के आधार पर ही तकं देकर ईश्वर की सत्ता सिद्ध करता है। वादरायण के सूत्र का प्रतिपाद्य ब्रह्म है, अतः उनका ग्रन्थ 'ब्रह्मसूत्र' के नाम से विख्यात है। मनुष्य या शरीरी को महत्व देते हुए इस सूत्र का नाम शारीरकसूत्र भी दिया गया है । __शाकूर अद्वैत-जगत्-शंकर ने जगत् को मिथ्या माना है। उपनिषदों में जहाँ एक ओर सृष्टि का वर्णन किया गया है, वहीं दूसरी ओर नाना विषयात्मक संसार को मिथ्या कहा गया है। सृष्टि को सत्य मानते हुए नानात्व को अस्वीकार कैसे किया जाय ? शंकर ने इस समस्या का समाधान करने के लिए संसार की तुलना स्वप्न या भ्रम से की है। यह संसार मिथ्या ज्ञान के कारण सत्य प्रतीत होता है, किन्तु ज्यों ही तत्त्वज्ञान का उदय होता है त्यों ही यह जगत् मिथ्या ज्ञात होता है। जैसे; स्वप्न की स्थिति में सारी घटनाएँ सत्य प्रतीत होती हैं, पर जाग्रत अवस्था में वे असत्य हो जाती हैं। भ्रम या अविद्या की सिद्धि के लिए शंकर ने माया की स्थिति स्वीकार की। माया को ईश्वर की शक्ति माना गया है। जिस प्रकार बमि से अमि की दाहकता भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार माया भी ब्रह्म से अभिन्न है । माया की सहायता से ही ईश्वर सृष्टि की लीला प्रकट करते हैं जो अज्ञानियों के अनुसार सत्य एवं तत्वदर्शियों के लिए असत्य है। इनके अनुसार इस संसार में केवल ब्रह्म ही सत्य है। माया भ्रम या अविद्या है। इसके दो कार्य हैंजगत् के आधार ब्रह्म के वास्तविक रूप को छिपा देना तथा उसे संसार के रूप में आभासित करना। यह माया अनादि है, क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ का कोई निश्चित समय नहीं है। शंकर ने माया को ब्रह्म का नित्य स्वरूप नहीं माना है, बल्कि वह ब्रह्म की इच्छा मात्र है जिसे वह इच्छानुसार त्याग भी सकता है। ब्रह्म-शंकराचार्य ने ब्रह्म का विचार दो दृष्टियों से किया है-व्यावहारिक एवं पारमार्थिक । व्यावहारिक दृष्टि के अनुसार जगत् सत्य है तथा ब्रह्म इसका मूल कारण है। वही सृष्टिकर्ता, पालक, संहारक, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान है। इस रूप में वह सगुण और साकार है तथा उसकी उपासना की जाती है। पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म में जगत् या जीव के गुण को आरोपित नहीं किया जा सकता। वह विजातीय, सजातीय तथा स्वगत सभी भेदों से परे है। शंकर ब्रह्म को निर्गुण मानते हैं, क्योंकि वह सत्य एवं अनन्त ज्ञान-स्वरूप है। वह माया-शक्ति के द्वारा ही जगत् की सृष्टि करता है। सगुण और निर्गुण ब्रह्म एक ही हैं, दोनों में किसी प्रकार का भेद नहीं है। दोनों की एक ही सत्ता है, किन्तु व्यवहार या उपासना के लिए सगुण ब्रह्म का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। शांकरमत को बतवाद कहते हैं। इसके अनुसार एकमात्र ब्रह्म की सत्ता है तथा जीव और ईश्वर (शाता और शेय ) का भेद माया के कारण है।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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