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________________ कुमार को अपने पास बुलाकर कहा, सुजात! तुम मेरे विश्वास-पात्र व्यक्ति हो। मेरा पत्र मेरे मित्र नरेश तक पहुंचा दो। सुजात ने सरल हृदय से राजा की आज्ञा शिरोधार्य कर ली। वह अमरापुरी पहुंचा और उसने अपने महाराज का पत्र महाराज चन्द्रध्वज को दे दिया। पत्र पढ़कर चन्द्रध्वज चौंक गया। उसने सुजात को देखा, सुजात के सरल और सौम्य मुख पर देशद्रोह की एक भी रेखा नहीं खोजी जा सकती थी। उसने विचार किया, उसका मित्र अवश्य ही किसी धूर्त की बातों में आ गया है। सुजात देश द्रोही होता तो वह स्वयं दण्ड दे सकता था। राजा सुजात को एकान्त में ले गया और उसने उसे पत्र पढ़ाया। पत्र पढ़कर सुजात भी दंग रह गया। पर उसने इतना ही कहा, महाराज! आप मित्र-धर्म का पालन कीजिए, मैं प्रस्तुत हूँ। चन्द्रध्वज ने कहा, मैं निर्दोष व्यक्ति को दण्ड नहीं दे सकता हूँ। तुम मेरे राज्य में रहो। इससे चम्पानरेश यही मानेगा कि उसका मन्तव्य सिद्ध हो गया है। सुजात ने राजा चन्द्रध्वज का प्रस्ताव अहोभाव से स्वीकार कर लिया। राजा ने एक अन्य प्रस्ताव सुजात के समक्ष रखते हुए कहा, सुजात! मेरी एक प्रार्थना है। उस प्रार्थना को प्रार्थना ही मानना, आदेश नहीं, और तुम बाध्य भी नहीं हो कि उसे तुम्हें मानना ही पड़े। सुजात ने कहा, महाराज ! आप मेरे जीवन दाता हैं। फरमाएं मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ? राजा ने कहा, मेरी एक बहन है चन्द्रयशा। उसे कुष्ठरोग है। मैं चाहता हूँ कि तुम उससे विवाह कर लो। यह मेरी प्रार्थना है। तुम इसके लिए बाध्य नहीं हो। सुजात ने कहा, महाराज! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है। मैं चंद्रयशा के रोग का निदान करूंगा और अपनी सेवा से उसे प्रसन्न रमूंगा। राजा ने अपनी बहन का विवाह सुजात कुमार से कर दिया। सुजात ने पूरे प्रेमभाव से चन्द्रयशा की सेवा की। उसने उसे जिनधर्म का अमृत पान कराया। चन्द्रयशा ने रुग्णावस्था में भी अपने को धन्य माना। वह पूरे मन से जिनधर्म की आराधना करने लगी। पर उसका रोग असाध्य था और कुछ ही वर्षों में उसका निधन हो गया। जिनधर्म के प्रभाव से वह देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई। अपने उपकारी पति के दर्शन करने के लिए वह सुजात के पास आई। उसने सुजात को प्रणाम किया और बताया कि उसी की कृपा से उसे देवभव की प्राप्ति हुई है, महाभाग! आदेश करें कि मैं आपके लिए क्या कर सकती हूँ। सुजात ने कहा, मैं दीक्षा लेना चाहता हूँ, पर दीक्षा लेने से पूर्व एक बार अपने माता-पिता के दर्शन करना चाहता हूँ। देव ने कहा, ऐसा ही होगा। देव सुजात कुमार को चम्पानगरी ले गया। उसे उद्यान में बैठाकर देव ने एक विशाल पर्वत अपने हाथों पर उठाया और घोर गंभीर चेतावनी राजा को दी, राजन् ! तुमने निरपराध सुजात कुमार की हत्या का षडयंत्र रचा है। मैं तुम्हे पूरे नगर सहित नष्ट कर दूंगा। देव की चेतावनी से नागरिक कांप उठे। राजा भी भयभीत बन गया। उसने प्रार्थना की, हे देव! मुझे क्षमा कर दो। यदि सुजात कुमार जीवित है तो मुझे बताएं वह कहां है, मैं उससे क्षमा मांग लूंगा और अपना साम्राज्य उसको अर्पित कर दूंगा। देव ने बता दिया कि सुजात कुमार उद्यान में है। इस उपक्रम के पश्चात् देव ने अपनी माया समेट ली। राजा, मंत्री और पूरा नगर उद्यान में उमड़ा। राजा ने अपना मुकुट सुजात के कदमों में रख दिया। सुजात ने राज्य अस्वीकार कर दिया। वह अपने माता-पिता से मिला। पुत्र मिलन से माता-पिता के हृत्कमल खिल उठे। सुजात ने पूरा घटनाक्रम माता-पिता को सुनाया और अपना संकल्प स्पष्ट कर दिया कि अब वह दीक्षा लेना चाहता है। पुत्र के सम्यक्-संकल्प से माता-पिता भी दीक्षा लेने के लिए संकल्पित बन गए। ... 654 .. .... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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