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________________ आत्मज एक तेजस्वी राजकुमार। युवावस्था में अनेक कुलीन कन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ । भोगोपभोग के समस्त सुख साधन पूर्व पुण्योदय से उसे सहज रूप में प्राप्त हुए । परन्तु उत्कृष्ट भोग सामग्री के मध्य में रहकर भी राजकुमार का अन्तर्मानस जल कमलवत् निर्लिप्त था। एक बार शरद ऋतु में राजकुमार सागरदत्त अपने प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ अपनी पत्नियों के साथ आमोद-प्रमोद कर रहा था । सहसा उसके आकाश पर स्थिर हो गए। उसने देखा - आकाश में एक छोटा सा मेघखण्ड देखते ही देखते पूरे आकाश पर फैल गया। काली-काली घटाएं छा गईं। दृश्य अतीव नयनाभिराम बन गया । राजकुमार का मन उस मेघ सौन्दर्य में रम गया। पर शीघ्र ही दक्षिण दिशा से हवा का एक झोंका उठा जिसने कुछ ही समय में मेघों के साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया। इस घटना ने राजकुमार की चिन्तन धारा को बदल दिया। उसने विचार किया, मेघ के साम्राज्य की तरह ही मुझे प्राप्त सुख-साधन और जीवन भी शीघ्र ही छिन्न-भिन्न हो जाने वाला है। बुद्धिमत्ता इस बात में है कि इससे पूर्व कि मेरा जीवन मेरे हाथों से फिसल जाए मुझे आत्मकल्याण का उपाय कर लेना चाहिए। राजकुमार सागरदत्त ने राजपाट और मोह ममत्व के आवरणों को हटाकर अभयसार नामक आचार्य से प्रव्रज्या धारण कर ली । आगमों का पारायण कर वे बहुश्रुत मुनि बने । कालान्तर में उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हुआ । कर्मकल्मष को ध्वस्त कर वे उच्च गति के अधिकारी बने । (घ) सागरदत्त वीरपुर ग्राम का एक श्रेष्ठी जिसके लिए धन ही धर्म था। गांव में उसकी इकलौती दुकान थी । वह ग्रामवासियों की अज्ञता और विवशता का भरपूर दोहन करता । पौने - सवाए बाट रखता, असली वस्तु के मूल्य पर नकली वस्तु बेचता । इससे उसने धन तो बहुत कमाया पर मानसिक शान्ति और प्रतिष्ठा खो बैठा। लोग उसकी बेईमानी को पहचानने लगे और उसे 'वंचक बनिया' कहने लगे । परन्तु इस नाम से सागरदत्त को कोई खिन्नता न थी । क्योंकि उसे प्रतिष्ठा से धन प्रिय था । सेठ का एक पुत्र था। सेठ ने सुलक्षणा नामक कन्या से पुत्र का विवाह किया । सुलक्षणा मात्र नाम से सुलक्षणा न थी, गुणों से भी वह सुलक्षणा थी । वह लोगों के मुख से अपने श्वसुर के लिए निन्दा के शब्द सुनती। लोग उसके श्वसुर को 'वंचक वणिक' कहते तो उसे बड़ी खिन्नता होती । उसने श्वसुर के इस उपनाम को बदलने का संकल्प कर लिया। अपने मधुर आचार-विचार से उसने श्वसुर का हृदय तो पहले ही लिया था। एक दिन उचित अवसर देखकर उसने श्वसुर से कहा, पिता जी ! लोग आपको वंचक-वणिक कहते हैं, ऐसा क्यों है? क्या इस उपनाम से आपको कष्ट नहीं होता ? सागरदत्त ने कहा, लोग मेरी आमदनी पर ईर्ष्या करते हैं । इसीलिए वे मुझे वंचक-वणिक कहते हैं। पर कहें, इससे मेरा क्या घटता है । व्यक्ति के पास धन हो तो उसके लिए कुनाम भी सुनाम है। सुलक्षणा ने कहा, आपका धन भी बढ़े और लोग आपका सम्मान भी करें, यदि ऐसा हो तो कैसा रहेगा ? सेठ बोला, ऐसा होगा तो बहुत अच्छा होगा। सुलक्षणा ने पूरे विश्वास से कहा- ऐसा अवश्य होगा, पर उसके लिए आपको मेरे कहे के अनुसार चलना होगा। सेठ ने पूछा, वह कौन-सी विधि है जिससे धन और यश दोनों एक साथ सुरक्षित - संचित रह सकते हैं ? 1 पुत्रवधू ने कहा- वह विधि है प्रामाणिकता । मेरी प्रार्थना पर आप अपने व्यापार में प्रामाणिकता को स्थान दीजिए। उससे आपके धन और यश दोनों में आशातीत वृद्धि होगी । पुत्रवधू की बात सेठ ने स्वीकार कर ली। वह पूर्ण प्रामाणिकता से नाप-तोल करने लगा । उचित मूल्य पर असली वस्तु ग्राहकों को देने लगा। देखते-ही-देखते ग्रामीणों का विश्वास सेठ के प्रति जाग गया। लोग • जैन चरित्र कोश *** 638
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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