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________________ उसने प्रभु से श्रावक-धर्म अंगीकार किया। एक बार श्रावक - प्रतिमा की आराधना के लिए सागरचन्द्र ने श्मशान में जाने का निश्चय किया । वह श्मशान में जाकर प्रतिमा धारण कर ध्यानावस्थित हो गया। संयोग से श्मशान भूमि के निकट से नभसेन गुजरा। सागरचन्द्र को प्रतिमा की आराधना में लीन देखकर उसका प्रतिशोध उमड़ आया। उसने पास ही रहे हुए तालाब के किनारे से आर्द्र मिट्टी ली और उससे सागरचन्द्र के सिर पर पाल बांध दी । तदनन्तर चिता से अग्नि लेकर उसने सागरचन्द्र के सिर पर उडेल दी। ऐसा करके नभसेन भाग खड़ा हुआ । उधर सागरचन्द्र ने अत्यंत समभावों से अग्नि- परीषह को सहन किया। उन्होंने अपनी प्रतिमा को खण्डित नहीं बनने दिया और नभसेन के प्रति दुर्भाव को अपने हृदय में प्रवेश नहीं लेने दिया। समता साधक सागरचन्द्र विमल भावों से देहोत्सर्ग करके देवलोक प्राप्त किया। आगे के भवों में वे मोक्ष जाएंगे। - उपदेश माला, गाथा 120 (ख) सागरचंद्र (मुनि) ( देखिए- मेतार्य मुनि) (क) सागरदत्त प्रभु पार्श्वकालीन ताम्रलिप्ति निवासी एक वणिक पुत्र । सागरदत्त जब युवा हुआ तो उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया । ज्ञान में उसे अपना पूर्वभव दिखाई देने लगा । पूर्वभव में वह एक ब्राह्मण का पुत्र था। उसकी पत्नी दुराचारिणी थी । पत्नी ने एक बार उसे विष दे दिया और स्वयं एक अन्य पुरुष के साथ चली गई । एक मालिन की सेवा और उपचार से ब्राह्मण-पुत्र स्वस्थ हो गया । पर पत्नी के विश्वासघात ने उसके हृदय स्त्री जाति के प्रति घृणा भर दी। वह संसार का त्याग करके परिव्राजक बन गया। वहां का आयुष्य पूर्ण कर वह यहां वणिकपुत्र बना। यहां पर वह स्त्रियों से घृणा करने लगा। युवा होने पर भी उसने विवाह नहीं किया । पूर्वभव में जिस ग्वालिन ने उसकी सेवा की थी वह भी इसी नगरी में एक श्रेष्ठी कन्या बनी थी । उस कन्या के हृदय में सागरदत्त के प्रति सहज अनुराग जागृत हुआ। सागरदत्त द्वारा उसके प्रेम प्रस्ताव को ठुकराए जाने पर भी वह निराश नहीं हुई। उसने सागरदत्त के स्त्री जाति से घृणा के मूल को जाना। उसने सागरदत्त को पत्र लिखा और स्पष्ट किया कि सभी स्त्रियां बुरी नहीं होती हैं। यह सच है कि एक स्त्री ने तुम्हारे साथ विश्वासघात किया, परन्तु यह भी सच है कि एक स्त्री ने ही तुम्हारे प्राणों की रक्षा भी की । श्रेष्ठ कन्या की इस युक्ति से सागरदत्त के हृदय में उसके प्रति अनुराग उग आया और उसने उससे विवाह कर लिया। बाद में सागरदत्त ने समुद्री व्यापार शुरू किया। शुरू में वह कई बार असफल हुआ। अंततः व्यापार में उसे सफलता मिली। खोई हुई लक्ष्मी की उसे प्राप्ति हुई। वह पाटलीपथ में रहकर व्यवसाय करने लगा। वहीं पर उसने श्रावक धर्म अंगीकार किया। उन दिनों भगवान पार्श्वनाथ पुण्ड्रवर्धन देश में विचरण कर रहे थे। सागरदत्त भगवान का उपदेश सुनने गया । प्रभु के उपदेश से वह प्रबुद्ध बन गया । दीक्षा लेकर उसने आत्म-साधना का पथ प्रशस्त किया और उत्तम गति का अधिकारी बना । (ख) सागरदत्त चम्पानगरी के एक सम्पन्न श्रेष्ठी । (देखिए - नागश्री) (ग) सागरदत्त महाविदेह क्षेत्र की पुण्डरीकिणी नगरी के चक्रवर्ती सम्राट् वज्रदत्त और उनकी महारानी यशोधरा का ••• जैन चरित्र कोश 637
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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