SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 677
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था कमलामेला । कमलामेला अद्भुत लावण्यमती और सुरूपा थी। धनसेन वणिक था, पर चाहता था कि उसकी पुत्री का विवाह राजपरिवार में हो। उसने अपनी पुत्री का सम्बन्ध उग्रसेन के पुत्र नभसेन से सुनिश्चित कर दिया। नभसेन कमलामेला के चित्र को देखकर मन ही मन उसके रूप और लावण्य पर मुग्ध हो गया । वह अहर्निश उसी के विचारों में खोया रहता। एक बार घूमते-घूमते देवर्षि नारद नभसेन के महल में आए। कमलामेला की कल्पनाओं में तल्लीन नभसेन नारद के आगमन को जान नहीं पाया, परिणामतः उसने न तो नारद जी को प्रणाम किया और न ही उन्हें आसन दिया। इससे नारद जी बुरा मान गए। उन्होंने इसे अपना अपमान माना और मन ही मन निश्चय कर लिया कि जिस कन्या के ध्यान में डूबकर यह राजकुमार साधारण नियम और व्यवहार को भी विस्मृत कर बैठा है, उस कन्या के साथ मैं इसका विवाह नहीं होने दूंगा। ऐसा विचार करके नारद जी वहां से चलकर सीधे सागरचन्द्र के महल में पहुंचे। सागरचन्द्र ने नारद जी का भाव भीना स्वागत किया और उन्हें बैठने के लिए आसन दिया। तब कुमार ने देवर्षि से पूछा, मुने! आप तो तीनों लोकों के विहारी हैं। कुछ विचित्र दर्शन की बात सुनाइए ! नारद ने कहा, विचित्र दर्शन के लिए तीनों लोकों का भ्रमण अनिवार्य नियम नहीं है। विचित्र वस्तु तो तुम्हारे ही नगर में मौजूद है। कुमार की जिज्ञासा प्रबल बन गई और उसने पूछा, वह विचित्र वस्तु क्या है महर्षि ? नारद जी ने कहा, वह है कमलामेला ! वह तुम्हारी ही नगरी के रहने वाले धनसेन सेठ की पुत्री है। उस जैसी सुन्दरी पृथ्वीमण्डल पर दुर्लभ है। पर धनसेन ने उसका सम्बन्ध उग्रसेन के पुत्र नभसेन से कर दिया है। परन्तु उसकी जोड़ी के तो तुम ही हो । कहकर नारद प्रस्थित हो गए। सागरचन्द्र कमलामेला पर मुग्ध बन गया। उसकी दशा उन्मत्त जैसी हो गई । उसके पितृव्य शाम्बकुमार ने उसकी दशा देखी और कारण पूछा। सागरचन्द्र ने पूरी बात पितृव्य को बता दी और कहा कि वह कमलामेला के बिना जीवित नहीं रह सकता है। शाम्बकुमार ने सागरचन्द्र को वचन दिया कि वह कमलामेला के साथ उसका विवाह अवश्य कराएगा । उधर नारद जी कमलामेला के पास पहुंचे और उन्होंने उसके हृदय में भी सागरचन्द्र के प्रति अनुराग उत्पन्न कर दिया। शाम्बकुमार अनेक विद्याओं से सम्पन्न थे । उन्होंने एक सुरंग तैयार की जो द्वारिका के बाह्य भाग में स्थित उद्यान से कमलामेला के महल तक जाती थी। उसी सुरंग मार्ग से जाकर सागरचन्द्र कमलामेला को उद्यान में ले आया। शाम्बकुमार के आह्वान पर नारद जी प्रगट हुए और उनकी उपस्थिति में सागरचन्द्र और कमलामेला विवाह - सूत्र में बंध गए । धनसेन ने अपनी पुत्री को महल में नहीं पाया तो वह चिन्तातुर हो गया। उसने वासुदेव श्रीकृष्ण से इसकी शिकायत की। श्रीकृष्ण के सैनिकों ने शीघ्र ही पता लगा लिया कि कमलामेला उद्यान में है। श्रीकृष्ण वहां पहुंचे । नभसेन भी प्रतिवादी बनकर पहुंचा। शाम्ब ने पक्ष प्रस्तुत किया, भगवन्! कमलामेला और सागरचन्द्र परस्पर एक दूसरे से प्रेम करते हैं और दोनों ने अपनी इच्छा से विवाह किया है इसलिए वे दोनों निरपराध हैं। श्रीकृष्ण को उसका पक्ष न्यायोचित प्रतीत हुआ । पर उन्होंने कहा, इसके लिए सागरचन्द्र को नभसेन से क्षमा मांगनी होगी। सागरचन्द्र नभसेन के कदमों पर अवनत हो गया और उसने उससे क्षमा मांगी। ऊपर सेतो नभसेन ने सागरचन्द्र को क्षमा कर दिया, पर उसके हृदय में द्वेष की ग्रन्थी जम गई । वह प्रतिशोध लेने के लिए उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगा । सागरचन्द्र कमलामेला पर ऐसा मुग्ध बना कि धर्म-कर्म सब कुछ भुला बैठा । कालान्तर में अरिहंत अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी पधारे। प्रभु का उपदेश सुनकर सागरचन्द्र के हृदय में आत्मबोध जागृत हुआ। • जैन चरित्र कोश ••• *** 636
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy