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________________ से यह कहकर कि ठण्डी होने पर वह खीर खाले, स्वयं काम करने चली गई। संगम ने हमउम्र श्रेष्ठी पुत्रों का शोर सुना तो उसने देखा कि बालक एक मासोपवासी मुनि को अपने-अपने घर चलने की प्रार्थना कर रहे हैं। लपककर संगम भी मुनि के समक्ष पहुंचा और उन्हें अपने घर बुलाने लगा। समस्त प्रार्थनाओं में मुनि ने संगम की प्रार्थना को मान्यता दी और उसकी झोंपड़ी पर आकर अपना पात्र फैला दिया। जिस खीर के लिए कुछ देर पहले संगम रो रहा था उस पूरी खीर को उसने मुनि के पात्र में उंडेल दिया और प्रसन्नता से नाच उठा। ____ मुनि के जाने के बाद संगम थाली के किनारों पर रही हुई खीर को चाटने लगा। उसी क्षण धन्या लौटी। पूरी बात से अपरिचित धन्या ने सोचा कि उसका पुत्र अभी भूखा है। उसने बर्तन में शेष पूरी खीर को भी संगम की थाली में उंडेल दिया। पूरे भाव से संगम ने खीर का आहार किया। गरिष्ठ भोजन से उसे अपच हो गया। उदरशूल से वह व्याकुल बन गया और कुछ ही देर में उसका देहान्त हो गया। (वस्तुतः संगम ने क्षीरदान से इतना महापुण्य संचित कर लिया था कि उस महान पुण्य के उपभोग के लिए किसी उचित स्थान की अपेक्षा थी। अजीर्ण तो निमित्त मात्र ही बना था।) वहां से देह छोड़कर संगम उसी मोहल्ले के सबसे समृद्धिशाली सेठ गोभद्र सेठ की पत्नी भद्रा की कुक्षी से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ जहां उसका नाम शालिभद्र रखा गया। (देखिए-शालिभद्र) संघदत्त कामपुर नगर का एक धनी व्यापारी। (देखिए-केशरी) संजय राजर्षि उत्तराध्ययन सूत्र के संजयीय नामक अध्ययन के नायक। संजय काम्पिल्यनगर के राजा थे। गर्दभाली • आचार्य से प्रतिबोध पाकर संजय हिंसा से विरत हुए और मुनि बनकर आत्मकल्याण की साधना में रत बन गए। (देखिए-गर्दभाली) सम्प्रति (राजा) मौर्यवंशी सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में जो महनीय कार्य किए वही कार्य जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में उनके पौत्र और भारतवर्ष के यशस्वी सम्राट् सम्प्रति ने किए। सम्राट् सम्प्रति के हृदय में जैन धर्म के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा थी। उसने जैन धर्म को राजधर्म का दर्जा दिया था। जैन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उसने आन्ध्र प्रदेश तक अपने अनुचरों को मुनि वेश पहनाकर भेजा था जिससे जैन श्रमण के वेशविन्यास से साधारण जनता परिचित हो सके तथा जैन श्रमणों का विचरण सुगम बन सके। मिस्र, अरब, ईरान, यूनान, चीन और जापान आदि देशों में भी जैन धर्म के विद्वान और प्रचारक भेज कर उसने जैन धर्म को विश्वधर्म बनाने के महनीय प्रयास किए थे। कथा-साहित्य के अनुसार आचार्य सुहस्ती के दर्शन करके सम्राट् सम्प्रति को अपना पूर्वजन्म स्मरण हो आया था। उससे सम्प्रति की जैन धर्म के प्रति आस्था और भी सुदृढ़ बन गई। उसने निर्धनों के कल्याण के लिए अपने राज्य में सात सौ दानशालाएं खुलवाई थीं। उसने कई जिन मंदिर भी बनवाए और कई जिनालयों का जीर्णोद्धार भी कराया-ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। सम्राट् सम्प्रति का शासनकाल ईसा पूर्व 230 से 190 तक का माना गया है। ... 612 .. ... जैन चरित्र कोश ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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