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________________ संभवनाथ (तीर्थंकर) संभवनाथ जैन परम्परा के तीसरे तीर्थंकर थे । श्रावस्ती नगरी के महाराज जितारि और उनकी रानी सोना देवी संभवनाथ के जनक और जननी थे। भगवान के गर्भ में आते ही राज्य के असंभव से कार्य सहज संभव बन गए इसलिए उनके जन्म लेने पर उनका नाम संभवनाथ रखा गया । युवा होने पर संभवनाथ ने पिता का उत्तराधिकार संभाला और सुदीर्घ काल तक सुशासन किया। जीवन के अन्तिम भाग में उन्होंने जिन दीक्षा ग्रहण की और केवलज्ञान को साधकर तीर्थंकर पद पाया । उनके धर्मोपदेशों से जगत में नवीन धार्मिक क्रान्ति का उद्घोष हुआ । लाखों भव्य प्राणियों ने सद्धर्म का अमृतपान करके मोक्ष का पथ प्रशस्त किया । भगवान संभवनाथ के दो पूर्वभवों का वर्णन प्राप्त होता है । दो भव पूर्व भगवान का जीव महाविदेह क्षेत्र की क्षेमपुरी नगरी का राजा था जिसका नाम विमलवाहन था । विमलवाहन का हृदय अत्यन्त कोमल और करुणाशील था। किसी समय उस क्षेत्र मे दुष्काल पड़ा । अन्नाभाव से प्रजा त्रसित बन गई। उस समय करुणाशील राजा ने अपने अन्न भण्डारों के द्वार खुलवा दिए। उन्होंने अपने पाचक को निर्देश दिया कि उनकी रसोई से कोई भी अतिथि खाली न लौटे। ऐसे में कई बार राजा को भूखा भी रहना पड़ा । फलस्वरूप राजा ने तीर्थंकर गोत्र का बन्ध किया । कालान्तर में दुष्काल समाप्त हो गया। पर राजा का मन विरक्त हो चुका था। उन्होंने मुनिव्रत अंगीकार करके अपना शेष जीवन संयम और साधना को समर्पित कर दिया । आयुष्य पूर्ण कर वे आनत देवलोक में गए और वहां से च्यव कर संभवनाथ के रूप में जन्मे । - त्रिषष्टि शलाकापुरुष चरित्र संभूतविजय (आचार्य) तीर्थंकर महावीर के धर्मशासन के छट्ठे पट्टधर आचार्य और चतुर्थ श्रुतकेवली । उनका जन्म मार गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में वीर निर्वाण 66 में हुआ था । आचार्य शय्यंभव की उपस्थिति में ही वे दीक्षित हुए और आचार्य श्री यशोभद्र जी के शिष्य बने । आचार्य यशोभद्र जी से ही उन्होंने चतुर्दश पूर्व का अध्ययन किया और उनके स्वर्गवास के पश्चात् वे वी. नि. 148 में युगप्रधान आचार्य के पाट पर आरूढ़ हुए । आचार्य भद्रबाहु संभूतविजय के लघु गुरुभ्राता थे । इन दो चतुर्दश पूर्वधर महापुरुषों की छत्रछाया में जिनशासन की महती प्रभावना हुई। उस समय मगध पर अंतिम नंद का शासन था और उसके मन्त्री शकडाल एक जैन श्रावक थे । जैन धर्म पर महामन्त्री शकडाल की श्रद्धा अपूर्व और अनन्य थी। उन्हीं के संस्कार उनकी संतानों में भी यथावत् उतरे थे। अपनी प्रामाणिकता की परीक्षा के लिए शकडाल ने इच्छामृत्यु का वरण किया । पितृमृत्यु से आहत स्थूलभद्र का वैषयिक अनुराग क्षीण हो गया और मन्त्रिपद के लिए नन्दराजा के प्रस्ताव को अस्वीकार करके आचार्य संभूतविजय के शिष्य बन गए। बाद में यक्षा आदि उनकी आठ भगिनियों ने भी आचार्य संभूतविजय के धर्मसंघ में दीक्षा ग्रहण की। कुछ वर्ष बाद स्थूलभद्र के अनुज श्रीयक भी मन्त्रिपद का त्याग कर प्रव्रजित हो गए। ऐसे एक ही परिवार के नौ सदस्यों ने श्री संभूतविजय के धर्मसंघ में दीक्षा धारण की। आचार्य संभूतविजय का धर्मसंघ सुविशाल था । उनके अनेक शिष्य, प्रशिष्य और अन्तेवासी श्रमण थे। कल्पसूत्र स्थविरावली में उनके 12 शिष्यों के नामों का उल्लेख हुआ है, यथा – ( 1 ) नंदन भद्र, ( 2 ) उपनंदन भद्र, (3) तीसभद्र, (4) यशोभद्र, (5) सुमणिभद्र, ( 6 ) मणिभद्र, (7) पुण्यभद्र, (8) स्थूलभद्र, (9) उज्जुमई, जैन चरित्र कोश *** 613
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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