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________________ सौंप दिए। अपने लिए एक छोटा सा कक्ष ही रखा। पर पुत्रों की दृष्टि उस कक्ष पर भी लगी थी। श्येन ने वह कक्ष भी त्याग दिया। श्येन की मंत्री से मैत्री थी। वह मंत्री के पास गया। उससे मकान के बारे में पूछा। मंत्री ने उसे एक ऐसे मकान के बारे में बताया जो व्यंतर - बाधा से बाधित था, और व्यंतर द्वारा उस मकान में रहने को गए कई लोगों का वध किया जा चुका था । श्येन ने उसी मकान में रहने का आग्रह किया। मंत्री द्वारा पुनः पुनः समझाए जाने पर भी श्येन ने उसकी बात स्वीकार नहीं की और उस मकान में रहने को वह चला गया। उसने व्यंतर की आज्ञा लेकर मकान में प्रवेश किया और रात भर स्वाध्याय करके उसने एक ही रात्रि में व्यंतर को अहिंसक बना दिया । व्यंतर ने विशाल खजाने का परिचय श्येन को दिया और स्वयं सदा के लिए अन्यत्र चला गया । श्येन कुछ वर्षों तक गृहवास में रहकर स्वाध्याय करता रहा। बाद में प्रव्रजित होकर मोक्षगामी बना। - धर्मरत्न प्रकरण टीका, गाथा 43 श्रमण महावीर का एक गुणनिष्पन्न नाम । समत्व साधना में निरन्तर श्रम करके कर्मों का शमन करने से महावीर श्रमण कहलाए । श्रमणभद्र कुमार चम्पानगरी नरेश जितशत्रु के पुत्र जो किसी श्रमण के उपदेश को सुनकर प्रव्रजित हो गए और परीषहजयी मुनि बने। एक बार वे एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में लीन थे। वृक्ष की शाखा पर मधुमक्खियों का छत्ता लगा हुआ था। कुछ ऐसा कारण निर्मित हुआ कि छत्ते से शहद की बूंदें टपककर मुनिवर के शरीर पर गिरने लगीं। इससे मधुमक्खियां मुनि के शरीर पर आ चिपकीं। मधुमक्खियों ने दंश पर दंश चलाकर मुनिवर के शरीर को छलनी कर दिया, पर मुनिवर ने अपनी समाधि को भंग नहीं होने दिया । वे नरकों में आत्मा द्वारा अनन्त बार भोगे गए कष्टों का चिन्तन करते हुए अविचल समाधिस्थ रहे। दंशों के आधिक्य से उनका निधन हो गया। शान्तचित्त से शरीर त्याग कर मुनिवर देवलोक के अधिकारी बने । 7 - उत्त. वृत्ति श्रीकान्ता ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की एक रानी । (देखिए - ब्रह्मराजा ) श्रीगुप्त एक वणिक-पुत्र, श्रीगुप्त बाल्यकाल से ही दुर्व्यसनों का शिकार बन गया और चौर्यकर्म में प्रवृत हो गया। एक बार वह पकड़ा गया और राजा ने उसे अपने देश से निकाल दिया। जंगल में वह एक वृक्ष के रात्रि विश्राम कर रहा था तो उसे एक शुक शुकी का संवाद सुनने का पुण्य-प्रसंग मिला। शुक ने शुकी से बताया कि आज उसे एक मुनि के दर्शन हुए। उसकी जिज्ञासा पर मुनि ने उसका पूर्वभव सुनाया और बताया कि वह पूर्वभव में एक मुनि था। मुनि होकर भी वह कपट का आचरण करता था । उसी के फलस्वरूप उसे तिर्यंच योनि में जन्म लेना पड़ा है। शुक ने आगे कहा, शुकि! अब मुझे बोध प्राप्त हो गया है। प्रभात होते ही मैं पुंडरीक शैल पर जाकर समाधि-मरण प्राप्त करूंगा । श्रीगुप्त शुक के संकल्प को सुनकर आत्मचिंतन के लिए बाध्य हो गया। उसने सोचा, यह तोता एक तिर्यंच प्राणी होकर भी धर्माराधना के लिए कितना उत्सुक है और मैं मनुष्य होकर भी पापों के गहन गर्त में ** जैन चरित्र कोश ••• *** 598
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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