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________________ किया। वी.नि. 335 में वे युग प्रधानाचार्य और वाचनाचार्य के पदों पर आसीन हुए। दो-दो विशिष्ट पदों पर उनकी नियुक्ति उनके ज्ञान-गांभीर्य और नेतृत्व कुशलता को प्रमाणित करती है। श्यामाचार्य का तत्व ज्ञान गहन और सुविशाल था। निकोद के व्याख्याकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि है। इस संदर्भ में एक कथा भी प्रचलित है। एक बार सौधर्मेन्द्र ने महाविदेह क्षेत्र में विराजमान श्री सीमन्धर स्वामी के मुख से निकोद की व्याख्या सुनी। सौधर्मेन्द्र उस विशिष्ट और सूक्ष्म व्याख्या को सुनकर रोमाञ्चित बन गए। उन्होंने प्रभु से पूछा, भगवन् ! क्या भरतक्षेत्र में भी निकोद का व्याख्याकार कोई मुनि है। भगवान ने फरमाया, श्यामाचार्य निकोद के सूक्ष्म व्याख्याता हैं। सुनकर इन्द्र आल्हादित हो गए और श्यामाचार्य के दर्शनों के लिए वृद्ध ब्राह्मण का रूप धर कर उनके पास पहुंचे। वृद्ध ब्राह्मण की हस्त रेखाओं पर आचार्य श्री की दृष्टि पड़ी। आचार्य श्री इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि आगन्तुक ब्राह्मण की आयु पल्योपम से ऊपर जा रही है। उन्होंने वृद्ध ब्राह्मण से कहा, भद्र! तुम मानव नहीं, देव हो। देवराज इन्द्र आचार्य श्री के ज्ञान को देखकर आनन्दित हुए। उन्होंने निकोद के बार में आचार्य श्री से व्याख्या करने की प्रार्थना की। आचार्य श्री ने निकोद का विशद विवेचन प्रस्तुत किया। सुनकर इन्द्र अभिभूत बन गए। उन्होंने आचार्य श्री को श्री सीमन्धर स्वामी के कथन के बारे में बताया और उन्हें वन्दन कर लौटने लगे। आचार्य श्री ने फरमाया, देवराज ! अपने आगमन का कोई प्रतीक छोड़ जाइए जिससे संघ में धर्म के प्रति विशेष आस्था बढ़े। देवराज इन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्व से पश्चिम दिशा में कर दिया और अपने स्थान पर लौट गए। आहारादि से निवृत्ति के पश्चात् शिष्य समुदाय आचार्य श्री के पास आया। उपाश्रय के पश्चिमाभिमुख द्वार को देखकर शिष्य चकित हो गए। उन्होंने आचार्य श्री के समक्ष अपना आश्चर्य प्रगट किया। आचार्य श्री ने इन्द्र के आगमन की बात शिष्यों को सुनाई। शिष्य समुदाय आनन्दित बन गया और उक्त घटना से जिनधर्म की प्रभावना में अभिवृद्धि हुई। ऐसी ही घटना का उल्लेख अन्य-अन्य ग्रन्थों में कालकाचार्य और आर्य रक्षित के साथ भी सम्बद्ध किया गया है। श्यामाचार्य ने प्रज्ञापना सूत्र की रचना की जो समवायांग का उपांग माना जाता है। 41 वर्षों तक युगप्रधान पद पर रहते हुए 96 वर्ष की अवस्था में वीर नि. 376 में श्यामाचार्य का स्वर्गवास हुआ। श्यामारानी तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान की माता और कपिलपुर नरेश महाराज कृतवर्मा की अर्धांगिनी। दिखिए-विमलनाथ तीर्थंकर) श्येन कांची नगर का श्रेष्ठी। उसकी पत्नी का नाम कुवलयमाला था और उसके तीन पुत्र थे। श्रेष्ठी श्येन ने एक मुनि से स्वाध्याय का स्वरूप जानकर प्रतिदिन उसकी आराधना का नियम लिया था। वह प्रतिदिन तीन समय स्वाध्याय करता। निरन्तर स्वाध्याय-साधना से श्रेष्ठी का ज्ञान तो सुनिर्मल बना ही उसका चित्त भी अध्यात्म में रम गया। उसकी सांसारिक रुचियां कम हो गईं। ___कालान्तर में श्येन ने पुत्रों के विवाह किए। पुत्रवधुएं आईं। परिवार फैला और पारस्परिक क्लेश भी फैला। श्येन ने सभी पुत्रों को अलग-अलग कर दिया। सम्पत्ति और जायदाद के तीन हिस्से करके उनको ... जैन चरित्र कोश ... - 597 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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