SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 566
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनोद-प्रसंग वैराग्य का कारण बन गया । वज्रबाहु ने तत्क्षण अपना निर्णय सुना दिया, मैं मुनि बनकर यथार्थ सम्राट् बनना चाहता हूँ। कहकर वज्रबाहु मुनि के पास पहुंचे और उनसे प्रव्रज्या की प्रार्थना करने लगे । वैराग्य का महानद ऐसा प्रवाहित हुआ कि उसी दिन वज्रबाहु के साथ उसका साला उदयसुन्दर तथा पत्नी मनोरमा ने दीक्षा धारण कर ली । वन विहार में साथ में आए पच्चीस अन्य युवकों ने भी दीक्षा धारण की। राजा विजय को यह सूचना मिली तो वे भी विरक्त हो गए। पुत्र पुरन्दर को राजपद देकर वे श्र में दीक्षित हो गए। वज्रबाहु का सत्संकल्प कई भव्यों के लिए कल्याण का कारण बन गया । वज्रवीर्य - जैन रामायण जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में स्थित शुभंकरा नामक नगरी का एक राजा । (देखिए-मरूभूति) वज्रसेन (आचार्य) आर्य सिंहगिरि की गण परम्परा के एक महान आचार्य । वृद्धावस्था में वे आचार्य पद पर आरूढ़ हुए और उनका शासन काल चार वर्षों का रहा। आर्य वज्रसेन का जन्म वी.नि. 492 में हुआ। 9 वर्ष की आयु में ही वे जिनधर्म में प्रव्रजित हो गए । आगमों का गंभीर अध्ययन कर वे आगमों के विशिष्ट ज्ञाता बने । आर्य वज्रस्वामी आयु और दीक्षा पर्याय में आर्य वज्रसेन से छोटे थे, परन्तु आचार्य पद पर वज्रसेन की नियुक्ति वज्रस्वामी के बाद ही हुई थी। वी. नि. 584 में देश में भीषण दुष्काल पड़ा। आर्य वज्रस्वामी ने रथावर्त पर्वत पर अपने 500 शिष्यों के साथ अनशन का संकल्प किया। उस समय आर्य वज्रस्वामी ने आर्य वज्रसेन को गण का भार सौंप कर कुंकुण देश में विहार करने के लिए कहा। आर्य वज्रसेन कुंकुण देश में विचरने लगे । दुष्का की त्रासदी से पूरा देश त्रसित था । स्वाभाविक है कि आचार्य वज्रसेन को भी उन स्थितियों में कठिन परीषों का सामना करना पड़ा ही होगा । वी.नि. 592 में आर्य वज्रसेन सोपारक नगर में पधारे। दुष्काल चरम पर था। अन्नाभाव का ग्रास बन रही थी। जो लोग जीवित थे, असह्य कष्ट पूर्वक जी रहे थे। सोपारक नगर में जिनदत्त नामक एक श्रमणोपासक श्रेष्ठी रहते थे। उनकी पत्नी का नाम ईश्वरी था। उनके चार पुत्र थे। जिनदत्त एक समृद्ध सेठ थे। पर अन्नाभाव में उनके परिवार की दशा करुणामयी बन गई थी। प्रत्येक सदस्य अन्न के कण-कण के लिए तरस रहा था । ईश्वरी ने विचार किया कि तिल-तिल कर मरने की अपेक्षा आत्महत्या ही कर ली तो श्रेष्ठ होगा। उसने लक्ष मुद्रा मूल्य के शालि पकाए और उनमें विष का मिश्रण कर दिया। जब वह अपने परिवार को उक्त शालि परोसने की तैयारी कर रही थी उसी समय पुण्योदय से आर्य वज्रसेन भिक्षा की खोज में वहां पधारे। ईश्वरी ने आर्य वज्रसेन का स्वागत किया। उसने विषमिश्रित भोजन का पात्र छिपाने का प्रयत्न किया। परन्तु आर्य वज्रसेन की दृष्टि से उसका वह प्रयास छिप न सका। आर्य वज्रसेन ने ईश्वरी से उसके वैसा करने के कारण को पूछा । साश्रु नयनों से ईश्वरी ने यथार्थ व्यक्त कर दिया । श्रमणोपासक परिवार की इस दशा को देखकर आर्य वज्रसेन चिन्तनशील बन गए । ज्ञानोपयोग से जानकर उन्होंने ईश्वरी से कहा, बहन ! दुष्काल समाप्ति पर है, धैर्य धारण करो और सुप्रभात की प्रतीक्षा ••• जैन चरित्र कोश *** 525
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy