SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 567
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करो। ईश्वरी ने मुनि के कथन को स्वीकार किया। दूसरे ही दिन अन्न से भरे पोत नगर सीमा पर आ पहुंचे। दुष्काल विदा हुआ। सुकाल का सुप्रभात सबके लिए जीवन का सन्देश लेकर आया। इस घटना से जिनदत्त और ईश्वरी का धर्मानुराग अतिशय रूप से बढ़ गया। उन दोनों ने अपने चारों पुत्रों के साथ दीक्षा धारण कर ली। नागेन्द्र, निवृत्ति, चन्द्र और विद्याधर नामक चारों श्रेष्ठि-पुत्र अपने समय के महाप्रभावी और श्रुतधर मुनि हुए। उन चारों के नाम से चार कुलों का उद्भव भी हुआ। आर्य वज्रसेन एक सुदीर्घ आयुष्य वाले आचार्य थे। वी.नि. 617 में उन्होंने आचार्य पद संभाला था। वी.नि. 620 में 128 वर्ष की अवस्था में उनका स्वर्गारोहण हुआ। -प्रभावक चरित/-परिशिष्ट पर्व, सर्ग-13 वज्रसेना (आर्या) इनका समग्र परिचय कमला आर्या के समान है। (देखिए-कमला आर्या) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र, द्वि.श्रु., वर्ग 5, अ. 19 वज्रस्वामी (आचार्य) ___ वी.नि. की छठी शताब्दी में आर्य वज्रस्वामी एक महाप्रभावी आचार्य हुए। आचार्य सुहस्ती की परम्परा के आर्य सिंहगिरि आर्य वज्र के गुरु थे। आर्य वज्र एक धर्मनिष्ठ परिवार में जन्मे थे। उनका परिवार अनन्य श्रमणोपासक था। आर्य वज्र के दादा श्रेष्ठी धन ख्याति प्राप्त दानवीर थे। आर्य वज्र के पिता धनगिरि बचपन से ही जिनधर्म के प्रति सुदृढ़ आस्थावान और विरक्त मन थे। संक्षिप्त कथासूत्र इस प्रकार है___ धनगिरि तुम्बवन नामक नगर के रहने वाले श्रेष्ठी धन के पुत्र थे। वे दीक्षा लेकर आत्मपथ पर बढ़ना चाहते थे। पर उसी नगर के रहने वाले श्रेष्ठी धनपाल के विशेष आग्रह पर उन्हें उसकी पुत्री सुनन्दा से पाणिग्रहण करना पड़ा। धनपाल भी जैन श्रावक था और उसका पुत्र समित पहले ही आर्य सिंहगिरि के चरणों में प्रव्रजित हो चुका था। कालक्रम से सुनन्दा गर्भवती हुई। इसकी सूचना उसने पति धनगिरि को दी। धनगिरि ने प्रसन्न होकर कहा, देवि ! पति के बाद पुत्र स्त्री के लिए आधार होता है। वह आधार अब तुम्हें प्राप्त हो गया है। अब मुझे अनुमति दे दो जिससे अध्यात्मपथ का पथिक बनकर मैं आत्म-कल्याण कर सकू। सुनन्दा स्वयं एक धर्मपरायणा सन्नारी थी। उसने पति की हार्दिक कामना में अपने को बाधा नहीं बनने दिया और सहज रूप से उन्हें दीक्षा की अनुमति प्रदान कर दी। धनगिरि आर्य सिंहगिरि से दीक्षित होकर तप-संयम से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। __ उधर कालक्रम से सुनन्दा ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। उचित वेला में बालक का जन्म महोत्सव मनाया गया। महोत्सव में उपस्थित महिलाओं ने सुनन्दा से कहा, आज धनगिरि भी उपस्थित होते तो महोत्सव का रंग ही विलक्षण होता, पर वे तो मुनिरूप में जाने कहां विचर रहे होंगे। महिलाओं के ये शब्द नवजात शिशु के कानों में पड़े। विलक्षण शिशु का चिन्तन मुनि शब्द पर स्थिर हो गया। चिन्तन धारा आगे बढ़ी और उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने संयमी पिता को भाव पूर्वक प्रणाम किया और सोचा, वस्तुतः संयम ही सार है। पर ममत्व के बंधन संयम में बाधा हैं। कोई ऐसा उपाय किया जाए जिससे सरलता से ममत्व का बंधन छिन्न हो जाए। उसके लिए शिशु ने एक उपाय खोज लिया और उसने सहसा रोना शुरू कर दिया। उसका रुदन अनवरत चलता रहा। सुनन्दा ने हजार उपाय किए, पर शिशु का रोदन नहीं रुका। दिन-रात शिशु रोता रहता। अनवरत रोदन का यह क्रम छह मास तक चलता रहा। सुनन्दा का आहार, विहार, शयन दुरूह हो गया। उसकी व्यथा का अन्त न था। .-526 ... जैन चरित्र कोश...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy