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________________ देव पुनः उसके समक्ष उपस्थित हुआ। देव ने उसे प्रतिबोध देने के लिए एक उपक्रम किया। लकड़हारे का रूप धारण कर, सिर पर सूखे घास का पूला रख वह अग्नि में प्रवेश करने लगा। उसे देख दुर्लभबोधि ने कहा, मूर्ख ! यह क्या कर रहा है, सिर पर सूखे घास का पूला लेकर अग्नि से गुजरना चाहता है, इससे तो तू जल मरेगा। देव ने कहा, महाराज ! मैं मूर्ख हूँ, पर आप तो महामूर्ख हैं। अग्नि-प्रवेश से मैं तो एक ही बार मरूंगा, पर काम रूप संसार में प्रवेश करके आप अनन्त बार मरेंगे। ___इस पर भी वह दुर्लभ बोधि नहीं समझा तो देव ने दूसरा उपाय किया। साफ-स्वच्छ राजमार्ग होते हुए भी वह नग्न पैरों से कंटीले मार्ग पर चलने लगा जिससे उसके पावं रक्तरंजित बन गए। उसे देखकर दुर्लभ बोधि बोला, मूर्खराज ! साफ स्वच्छ मार्ग होते हुए भी तू कंटीले मार्ग पर चल रहा है ? देव बोला, महाराज ! आप भी तो वैसी ही मूर्खता करने जा रहे हो। संयम के स्वच्छ राजमार्ग का त्याग कर भोगों के कंटीले मार्ग पर आप जा रहे हैं। देव द्वारा पुनः-पुनः प्रतिबोधित करने पर वह दुर्लभबोधि संभल गया। देव ने प्रगट होकर अपना परिचय दिया। उससे उसका सहोदर संबोधि को प्राप्त हुआ। वह पुनः अपने धर्माचार्य की शरण में चला गया और शुद्ध चारित्र की आराधना कर सुलभ बोधि बनकर देवलोक में देव हुआ। -उत्त. वृत्ति मूलदत्ता द्वारिकाधीश श्री कृष्ण के पुत्र शाम्ब की पत्नी। उसने भगवान अरिष्टनेमि के पास दीक्षा लेकर सिद्धत्व प्राप्त किया। -अन्तगडसूत्र, वर्ग 5, अध्ययन 10 मूलदेव भूमिभूषण नगर का राजकुमार। किसी समय उसके पिता ने रुष्ट होकर उसे घर से निकाल दिया। मूलदेव उज्जयिनी नगरी चला गया और देवदत्ता नामक गणिका के घर रहने लगा। देवदत्ता के घर अचल नामक व्यापारी का आवागमन होता था। अचल मूलदेव को वहां देखकर क्रोधित हो गया और उसे बंधनों में बांध दिया। मूलदेव ने कहा, मित्र ! तुम मुझे मुक्त कर दो, एक समय आएगा जब मैं भी तुम्हें मुक्त कर दूंगा। अचल ने उसे मुक्त कर दिया। वहां से दूर-देशान्तरों में भटकता हुआ मूलदेव वेणातट पाटन नगर में आया। वह कई दिन का भूखा था और उसके पास थोड़े से उड़द के छिलके थे। उन्हें खाने बैठा तो उधर से एक मासोपवासी मुनि पधारे। मूलदेव ने भक्ति पूर्वक वह आहार मुनिवर के पात्र में बहरा दिया। रात्रि में मूलदेव नगर के बाहर किसी जोगी की झोंपड़ी में सो गया। रात्रि में स्वप्न में उसने चन्द्रमा को अपने पेट में उतरते देखा। ऐसा ही स्वप्न जोगी ने भी देखा। दूसरे दिन जोगी ने एक राह चलते ब्राह्मण से अपने स्वप्न का फल पूछा। ब्राह्मण ने कहा, चन्द्र के आकार की घृतगुड़ वाली रोटी तुम्हें मिलेगी। उधर मूलदेव ने उद्यान से पुष्प-फल ग्रहण किए और एक निमित्तज्ञ के पास पहुंचा। उसे पुष्प-फल भेंट कर उसने स्वप्न फल पूछा। निमित्तज्ञ ने कहा, तुम मेरी पुत्री से पाणिग्रहण करो तो स्वप्न का फल बताऊं। मूलदेव ने उसकी बात स्वीकार कर ली। निमित्तज्ञ ने स्वप्न का फल बताया, मूलदेव ! आज से सातवें दिन तुम राजा बनोगे। वैसा ही हुआ भी। उस नगर का राजा निःसंतान अवस्था में ही कालधर्म को प्राप्त हो गया। वृद्ध और विज्ञजनों ने पंच-दिव्य छोड़े। पंच दिव्यों ने उद्यान में लेटे मूलदेव का वरण किया। मूलदेव राजा बन गया। उसने निमित्तज्ञ की पुत्री तथा देवदत्ता गणिका को अपनी रानी बनाया। ब्राह्मण निमित्तज्ञ को दरबार में उच्च पद प्रदान किया। ... जैन चरित्र कोश ... - 451 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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