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________________ (छ) पद्मावती गणाध्यक्ष महाराज चेटक की पुत्री, चम्पापुरी नरेश दधिवाहन की अर्धांगिनी और प्रत्येकबुद्ध करकण्डु की जननी। वह एक परम पतिपरायण सन्नारी थी। एक दुखद घटनाक्रम से गुजर कर वह विरक्त बन गई और दीक्षित हो गई। अंग और कलिंग के मध्य संभावित महायुद्ध को उसने न केवल रोका बल्कि अपने पति का भी वह आदर्श बनी । उत्कृष्ट संयम की आराधना कर उसने सुगति पाई । (च) पद्मावती __ वासुदेव श्री कृष्ण की पटरानी। भगवान अरिष्टनेमि के प्रवचन से प्रबुद्ध बनकर उसने प्रव्रज्या अंगीकार की। ग्यारह अंगों तक का अध्ययन किया। तप और संयम की साकार प्रतिमा बनकर उसने बीस वर्षों तक विशुद्ध चारित्र का पारिपालन किया और मासिक संलेखना के साथ अन्तिम श्वास में कैवल्य को साधकर सिद्ध हुई। -अन्तकृद्दशांगसूत्र वर्ग 5, अध्ययन 1 (छ) पद्मावती कोणिक की पट्टमहिषी। पद्मावती के हठ के कारण ही कोणिक और चेटक का संग्राम हुआ, जो महाविनाश का कारण बना। पद्मावती के हठ की कथा-गाथा निम्न प्रकार से है एक बार देवराज इन्द्र ने महाराज श्रेणिक की दृढ़धर्मिता और श्रद्धा की प्रशंसा देवसभा में की। एक देवता को इन्द्र की प्रशंसा नहीं रुची। वह श्रेणिक की श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिए राजगृह नगरी में आया। उसने एक मुनि का वेश बनाया और तालाब के किनारे बैठकर मछलियां पकड़ने लगा। महाराज श्रेणिक उधर से गुजरे। एक मुनि को अनार्य कर्म में प्रवृत्त देखकर राजा को बड़ी खिन्नता हुई। उसने मुनि के निकट जाकर उसके अनार्य आचरण के बारे में उसे टोका । मुनि वेशधारी देव ने कहा, राजन्! सभी मुनि गुप्त रूप से ऐसे ही अनार्य कार्यों में व्यस्त रहते हैं। मेरे बारे में आप जान गए हैं, शेष के बारे में जान नहीं पाए हैं। मुनि वेशधारी देव की बात सुनकर राजा ने सख्त स्वर में कहा, महाराज! अपनी जबान को संभालिए! अपने अनार्य आचरण को उचित ठहराने के लिए शेष मुनियों पर दोषारोपण मत करो। और इस जाल को फेंककर अपने गुरु के पास जाओ और आलोचना-प्रायश्चित्त से अपनी आत्मा को शुद्ध करो। मुनि वेश को ऐसे लज्जित करोगे तो तुम्हें सख्त से सख्त सजा दी जाएगी। राजा की बात सुनकर मुनि वेशधारी देव जाल फैंककर एक दिशा में चला गया। महाराज श्रेणिक आगे बढ़े। थोड़ी ही दूर जाने पर उन्होंने एक सगर्भा श्रमणी को देखा, जो एक छोटे से बालक की अंगुली पकड़े हुए निर्लज्ज भाव से राजा के मार्ग पर ही चली आ रही थी। साध्वी को उस दशा में देखकर श्रेणिक ठहर गए। साध्वी से बोले, साध्वी जी! मैं यह क्या देख रहा हूँ? अपने वेश और धर्म का तो तुम्हें तनिक विचार करना चाहिए था ! खैर, भूल हो जाना मानवीय स्वभाव है ! तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हारे प्रसव की समुचित व्यवस्था करा देता हूँ! बाद में आलोचना-प्रायश्चित्त से अपनी आत्मा को परिशुद्ध बनाकर तुम पुनः चारित्र धर्म का पालन करना! राजा की सीख का उपहास करते हुए साध्वी ने कहा, राजन् ! किस-किस के प्रसव की व्यवस्था तुम करोगे? मैं एक ही पतिता नहीं हूँ ! छत्तीस हजार अन्य भी हैं, जो छिपकर दुराचरण करती हैं। किस-किस को आप संभालेंगे? राजा ने रोषारुण बनकर साध्वी को डांटा, साध्वी जी! अपने शब्दों पर संयम रखिए! महान श्रमणियों - जैन चरित्र कोश ... -327 ..
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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