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________________ पूर्व दिशा में सेलक नाम के यक्ष का आयतन है, उसे भक्ति-स्तुति से तुम प्रसन्न कर सके तो वह तुम्हारी रक्षा कर सकता है। दोनों भाई सेलक यक्ष के यक्षायतन में गए। स्तुति से यक्ष को उन्होंने प्रसन्न किया और आत्मरक्षा की प्रार्थना की। सेलक घोड़े के रूप में प्रकट हुआ और बोला, मैं तुम्हें तुम्हारे इच्छित स्थान पर पहुंचा दूंगा। पर ध्यान रहे, रत्नद्वीपा तुम्हारा पीछा करेगी, उसकी कोई बाप्त मत सुनना! वैसा करोगे तो वहीं पटक दिए जाओगे! ____ दोनों भाइयों की स्वीकृति पर सेलक देव दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर बैठाकर चम्पा नगरी के लिए उड़ने लगा। उधर रत्नद्वीपा अपने महल में पहुंची। महल को शून्य पाकर अपने ज्ञानोपयोग से उसने दोनों भाइयों का पता लगाया। वह तत्क्षण उनका पीछा करने लगी। निकट पहुंचकर गिड़गिड़ाते हुए बोली, कम से कम एक बार मुझे देख तो लो! जिनपाल अविचलित रहा। पर जिनरक्षित विचलित बन गया। उसने आंख उठाकर रत्नद्वीपा की ओर देखा तो वह सेलक द्वारा गिरा दिया गया। अट्टहास करते हुए रत्नद्वीपा ने तलवार से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए। जिनपाल को सेलक ने उसके घर पहुंचा दिया। उक्त घटना से जिनपाल विरक्त हो गया। संयम धारण कर और निरतिचार रूप से संयमाराधना कर उसने सिद्ध पद प्राप्त किया। -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 9 जिनप्रभ सूरि (आचार्य) ___ कई उत्कृष्ट ग्रन्थों के रचनाकार एक विद्वान आचार्य। खरतरमच्छीय जिनेश्वर सूरि के शिष्य। अपने युग के वे एक प्रभावशाली आचार्य थे। विभिन्न भाषाओं और विषयों के अधिकारी विद्वान होने के साथ-साथ वे तन्त्र-मंत्र विद्या के भी ज्ञाता थे। किसी मुसलमान बादशाह पर जैन धर्म का प्रभाव स्थापित करने वाले संभवतः वे प्रथम जैन आचार्य थे। ___ आचार्य जिनप्रभ सूरि का जन्म हीलवाड़ी नामक ग्राम में हुआ। उनके माता-पिता का नाम क्रमशः खेतलदेवी तथा रत्नपाल था। गहवास में उनका स्वयं का नाम सहडपाल था। वी.नि. 1796 में सहडपाल ने जिनसिंह सरि के चरणों में दीक्षा धारण की। दीक्षा के समय उनका नाम जिनप्रभ रखा गया। पन्द्रह वर्ष की संयमी पर्याय में किढ़वाणानगर में श्रीसंघ ने उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। मुसलमान बादशाह मोहम्मद तुगलक को जैन धर्म से प्रभावित करने का कार्य आचार्य जिनप्रभ सूरि ने किया। मोहम्मद तुगलक पर जिनधर्म और आचार्य श्री का अतिशय प्रभाव था। आचार्य श्री के कहने पर बादशाह ने राज्य में कई बार अमारि की घोषणा कराई थी। विधिमार्ग प्रपा, विविध तीर्थकल्प आदि कई ग्रन्थों की रचना आचार्य जिनप्रभ सूरि ने की थी। वे वी. नि. की 19वीं सदी के-तदनुसार वि.सं. 14वीं सदी के मान्य आचार्य थे। जिनभद्रगणी 'क्षमाश्रमण' (आचार्य) एक विद्वान जैन आचार्य। सुविख्यात भाष्यकार। जैन धर्म की सभी परम्पराओं में और विद्वद्वर्ग में आचार्य जिनभद्रगणी के भाष्य ग्रन्थ विशेष और गौरवमयी स्थान रखते हैं। वर्तमान में उनकी नौ रचनाएं उपलब्ध हैं। __ आचार्य जिनभद्रगणी 'क्षमाश्रमण' उपनाम से सुख्यात हैं। उनके जन्म स्थान, माता-पिता तथा गुरु आदि का स्पष्ट परिचय अनुपलब्ध है। विभिन्न विद्वानों के मतानुसार वे वी.नि. की बारहवीं शताब्दी के आचार्य थे। ... जैन चरित्र कोश ... - 213 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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