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________________ (ख) जयादेवी चम्पानगरी के महाराज वसुपूज्य की रानी और बारहवें तीर्थंकर प्रभु वासुपूज्य की जननी। (देखिएवासुपूज्य) जयानन्द केवली जया नामक नगरी के राजकुमार जय का पुत्र । एक सदाचारी, सदय, शालीन, शूरवीर और धर्मप्राण राजकुमार। जय के अग्रज विजय जया नगरी के नीतिनिपुण राजा थे। उनका भी एक पुत्र था, जिसका नाम सिंहसार था। सिंहसार बड़ा था और जयानन्द छोटा था। साथ ही जयानन्द में मौजूद समस्त गुणों के विरोधी गुण-अर्थात् अवगुण सिंहसार में मौजूद थे। वह स्वभाव से कायर, कपटी, कामी और ईर्ष्या का जीवंत पर्याय था। इन दोनों भाइयों की शिक्षा-दीक्षा एक साथ हुई। अपने सद्गुणों के कारण जयानन्द सभी की आंखों का सितारा बन गया, सभी उसकी प्रशंसा करते। इसके विपरीत सिंहसार अपने दुर्गुणों के कारण किसी को फूटी आंखों नहीं सुहाता था। राजा भी मन ही मन जयानन्द को युवराज बनाने का विचार करने लगे थे। सिंहसार मन ही मन जयानन्द के बढ़ते प्रभाव से कुढ़ता था। उसने विचार किया-जयानन्द के जीवित रहने पर उसे सदा छोटा सिद्ध होना पड़ेगा, क्योंकि तुलना के लिए वह सदैव उसके समक्ष उपस्थित रहता है। श्रेष्ठ यही है कि मैं उसका वध कर दूं। परन्तु वह मुझसे अधिक बलशाली है। छल से ही उसका वध संभव है। सिंहसार ने जयानन्द को विदेश भ्रमण के लिए उकसाया और कहा कि वे दोनों भाई विदेश घूमने जाएंगे और भाग्य परीक्षण करेंगे। सिंहसार का विचार था कि वह मार्ग में ही छल-बल से जयानन्द का वध कर देगा और वापिस लौटकर जया नगरी का राजा बनेगा। उसकी चाल सफल हो गई और जयानन्द ने उसके साथ चलने की स्वीकृति दे दी। दोनों भाई परदेस के लिए रवाना हो गए। सिंहसार प्रतिक्षण जयानन्द को अपने मार्ग से हटाने के विचार से ग्रसित रहता था। परन्तु जयानन्द इतना सजग और जागरूक रहता था कि सिंहसार को अपने लक्ष्य में सफलता नहीं मिली। मार्ग में एक नगर में दोनों कुमार रुके। वहां के राजा ने जयानन्द के शील-स्वभाव से प्रभावित बनकर उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। एक अन्य नगर में गए तो वहां पर जयानन्द को राजपद की प्राप्ति हो गई। जयानन्द को कदम-कदम पर अकल्प्य निधियां प्राप्त होती थीं। इससे सिंहसार की ईर्ष्या और सघन बनती जा रही थी। एक बार दोनों भाई एक जंगल में एक पर्वत पर स्थित देवालय में गए। वहां पर पहुंचते-पहुंचते जयानन्द थक गया। वह विश्राम करने के लिए एक वृक्ष की शीतल छाया में लेट गया। इसे अनुकूल अवसर जानकर सिंहसार ने जयानन्द की दोनों आंखें फोड़ डालीं और वहां से भाग खड़ा हुआ। सिंहसार सोचता था कि दृष्टि के अभाव में जयानन्द पर्वत से गिरकर अपने आप ही मर जाएगा। पर उसका सोचा हुआ पूरा नहीं हुआ। जयानन्द देवालय में अखण्ड समाधि जमाकर बैठ गया और महामंत्र नवकार का जाप करने लगा। देवालय की अधिष्ठात्रि देवी महामंत्र के प्रभाव से वहां उपस्थित हुई और उसने जयानन्द को स्वस्थ बना दिया। उसके बाद जयानन्द ने सिंहसार का साथ छोड़ दिया और एकाकी रहकर ही देशाटन किया। वह परम पुण्यशाली पुरुष रत्न था। जहां भी गया समृद्धि और सौभाग्य दास-दासी बने उसके सहयात्री बने रहे। उसने अपनी यात्रा में सहस्रों लोगों के कष्ट हरण किए, अनेक देशों का वह राजा बना और अनेक राजकुमारियों से उसने पाणिग्रहण किया। ... 196 ... ...जैन चरित्र कोश...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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