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________________ महाराज श्रेणिक उसी मार्ग से जा रहे थे। चेलना की विश्वस्त दासी को अनपेक्षित स्थान पर देखकर श्रेणिक ने उससे उधर जाने का कारण पूछा। दासी सत्य को छिपा न सकी। पूरी बात का यथार्थ जानकर श्रेणिक पुत्रमोह से विह्वल हो गए। उन्होंने उकुरड़ी से अपने पुत्र को उठा लिया। उन्होंने देखा, शिशु निरन्तर रो रहा है। परीक्षण करने पर उन्होंने पाया कि शिशु की छोटी अंगुली किसी मुर्गे द्वारा चबा ली गई है। अंगुली से रक्त और पीप रिस रहा था जिससे शिशु को असह्य वेदना हो रही थी। श्रेणिक ने शिशु की अंगुली को अपने मुख में लेकर पीप को चूसकर थूक दिया। इससे शिशु की पीड़ा कम हो गई। अंगुली पूरी तरह व्रणरहित हो जाने पर भी कुछ छोटी पड़ गई, जिससे शिशु का नाम कूणिक / कोणिक पड़ गया। वैसे उसका नाम अजातशत्रु रखा गया था। ____ कालक्रम से कोणिक युवा हुआ। पटरानी का पुत्र होने से तथा महाराज श्रेणिक के अन्य ज्येष्ठ पुत्रों अभय, मेघ, नंदीषेण आदि के दीक्षित हो जाने के कारण कोणिक युवराज पद का अधिकारी बना। परंतु अपनी प्रबल महत्त्वाकांक्षाओं के कारण कोणिक इतने से ही संतुष्ट नहीं था। वह तो शीघ्र ही राजा बनना चाहता था। उसकी सोच थी-महाराज श्रेणिक वृद्ध हो गए हैं, इस पर भी राजगद्दी से चिपके हुए हैं। जब तक ये जीवित रहेंगे, तब तक मुझे राज्य करने का अवसर नहीं मिलेगा। तब तक मैं स्वयं वृद्ध हो जाऊंगा। बुढ़ापे में राज्य करने का आनन्द ही क्या ? राज्य का सुख तो यौवन में ही भोगा जा सकता है। पर इसके लिए पिता को मार्ग से हटाना होगा। उसने अपनी सोच को क्रियान्वित करने के लिए कालिककुमार आदि अपने दस सौतेले भाइयों को अपने प्रभाव में ले लिया और उन्हें राज्यांश का लोभ देकर पूर्णतः अपने पक्ष में कर लिया। फिर एक रात्रि में अवसर साधकर उसने अपने देवसदृश पिता महाराज श्रेणिक को कारागृह में बंद कर दिया और स्वयं मगध देश का शासक बन बैठा। पूरे मगध जनपद में कोणिक के नाम का आतंक फैल गया। चारों ओर से उसकी परोक्ष निन्दा होने लगी, पर सत्ता और शक्ति के मद में अंधे बने कोणिक ने इसकी परवाह न करते हुए सार्वजनिक रूप से यह प्रतिबंध लगा दिया कि श्रेणिक से कोई भी व्यक्ति मुलाकात नहीं कर सकेगा। इतना ही नहीं उसने श्रेणिक को भोजन देना भी बंद कर दिया। इधर कोणिक में विद्वेष का भाव चरम पर था, उधर श्रेणिक इसे अपने कर्मों का फलभोग मानकर शांतचित्त से इसे सह रहे थे। कोणिक की माता चेलना अपने पति की इस दुरावस्था को सह नहीं पा रही थी। उसने कोणिक को विविध प्रकार से समझाया। कोणिक अपनी जिद्द पर अड़ा रहा पर उसने माता को श्रेणिक से मिलने की आज्ञा अवश्य दे दी। चेलना अपने जूड़े में भोजन छिपाकर श्रेणिक के पास ले जाती, जिससे श्रेणिक की उदरपूर्ति होती रहती। ___ आखिर एक छोटी सी घटना ने कोणिक को सजग किया। वह घटना इस प्रकार थी-एक दिन कोणिक अपने नन्हे पुत्र को गोद में लिए भोजन कर रहा था। शिशु ने लघुशंका कर दी जो कोणिक की थाली में भी गिर गई। कोणिक ने मूत्र पोंछ दिया और उससे भीगे भोजन को एक ओर कर शेष भोजन खाने लगा। सामने बैठी माता चेलना से कोणिक बोला, माता! संसार में मुझ जैसा ममतापूर्ण पिता शायद दूसरा नहीं मिलेगा। कोणिक की दर्पोक्ति सुनकर चेलना के भीतर का ज्वालामुखी फूट पड़ा। बोली, धिक्कार है तुझ जैसे पुत्र को ! तुम अपने को सबसे बड़ा ममत्वपूर्ण पिता कह रहे हो! अरे ममत्व तो तुम्हारे पिता में था तुम्हारे प्रति, जिन्होंने समस्त सम्भावनाओं को एक ओर करके न केवल तुम्हारे लिए अपने कलेजे का मांस ... जैन चरित्र कोश ... - 121 ...
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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