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________________ दिया बल्कि तुम्हारी अंगुली की पीप को भी अपने मुख में चूस कर तुम्हें पीड़ामुक्त किया। उसी देव सदृश पिता को तुमने यह पुरस्कार दिया कि काल कोठरी में डाल दिया ? पूरा घटनाक्रम जानकर कोणिक फफक कर रो पड़ा और अपने परम उपकारी पिता का पिंजरा काटने के लिए परशु लेकर दौड़ पड़ा। दूर से ही श्रेणिक ने उसे देखा और विचार किया कि कोणिक उनका वध करने के लिए आ रहा है । पुत्र के हाथों मरने से श्रेष्ठ उन्होंने आत्महत्या को माना और हीरे की अंगूठी निगलकर प्राण त्याग दिए । मृत पिता को देखकर कोणिक की पीड़ा का पार न रहा, पर अब सब व्यर्थ था । कालांतर में कोणिक का अपने दो भाइयों - हल्ल और विहल्ल से मनमुटाव हो गया। वह उनसे दिव्य हार और सिंचानक हाथी मांगने लगा। हल्ल - विहल्ल ने अपने को असुरक्षित पाया तो वे अपनी रानियों तथा हार व हाथी के साथ अपने नाना चेटक की शरण में चले गए। धर्मपरायण महाराज चेटक ने उन्हें अपना शरणागत बना लिया। इसी प्रसंग के चलते कोणिक और महाराज चेटक में बात खिंच गई। अंततः यह बात इतनी खिंच गई कि मगध और वैशाली की सेनाएं आमने-सामने आ डटीं । कोणिक का साथ कालिककुमार आदि उसके दस भाई दे रहे थे और चेटक के साथ उनके गण के अठारह शूरवीर राजा थे। भयानक युद्ध हुआ। कोणि के दसों भाई मारे गए। लाखों सैनिक हताहत हुए। आखिर कोणिक ने देवसहयोग से वैशाली की सेना को परास्त कर डाला। बचे-खुचे सैनिकों के साथ महाराज चेटक को अपने दुर्ग में लौट आना पड़ा । वैशालीका दुर्ग अभेद्यथा । परन्तु कूलबालुक मुनि को अपना सहयोगी बनाकर कोणिक ने उसे भी ध्वस्त कर डाला। इस प्रकार कोणिक विजयी हुआ। पर जिस हार और हाथी के लिए यह युद्ध लड़ा गया था, कोणिक के हाथों में पहुंचने से पहले ही वह दिव्य हार देवताओं ने वापिस ले लिया तथा सिंचानक हाथी युद्ध में मारा गया । इस विजय से कोणिक का विजयोन्माद शिखर छूने लगा। उसने अपने भीतर एक दिवास्वप्न संजो लिया कि वह चक्रवर्ती बनेगा । उसी कालखंड में वह भगवान महावीर के पास गया। वार्ता - प्रसंग में उसने भगवान से अपनी भावी गति के बारे में पूछा। भगवान ने स्पष्ट कर दिया कि मृत्यु के बाद वह छठी नरक में जाएगा। एक क्षण के लिए तो वह कांप गया। पर शीघ्र ही सामान्य बनते हुए उसने भगवान से पूछा, भगवन्! छठी नरक में और कौन जाता है ? भगवान ने कहा, चक्रवर्ती की भोगासक्त पट्टमहिषी छठी नरक जाती है। भोगासक्त चक्रवर्ती की गति पूछने पर भगवान ने स्पष्ट किया कि भोगासक्त चक्रवर्ती सातवीं नरक में जाता है। 1 कोणिक का दंभ फुफकार उठा। वह बोला, वह वहां नहीं जाना चाहेगा, जहां एक स्त्री जाती है। वह चक्रवर्ती बनेगा और सातवीं नरक में जाएगा। भगवान ने कोणिक को समझाया कि वह स्वयं पर संयम रखे, वह चक्रवर्ती नहीं बन सकता। पर मदांध कोणिक ने भगवान की बात नहीं मानी। उसने कृत्रिम रत्नों का निर्माण कराया और दिग्विजय के लिए निकल पड़ा। छोटे-बड़े कई राजाओं को परास्त करता हुआ वह तमिस्रा गुफा के द्वार पर पहुंच गया। उसने कृत्रिम दंड-रत्न से गुफा द्वार पर प्रहार किया। गुफारक्षक देव की चेतावनी को असुना करते हुए उसने गुफाद्वार पर पुनर्प्रहार किया। वहां से एक महाज्वाला प्रकट हुई, जिसमें देखते ही देखते कोणिक भस्म हो गया और मरकर छठी नरक में गया। कोणिक के जीवन का शुक्ल पक्ष मात्र यह प्रतिज्ञा थी कि वह भगवान महावीर का कुशल संवाद सुनकर ही अन्न-जल ग्रहण करता था । - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र पर्व 10, सर्ग 12 • जैन चरित्र कोश ••• *** 122
SR No.016130
Book TitleJain Charitra Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Amitmuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2006
Total Pages768
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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