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________________ क - VIII. 1. 36 (ओव्रश्चू, भ्रस्ज, सृज, मृजूष, यज, राजू, दुभाजु – इन धातुओं को तथा छकारान्त एवं शकारान्त धातुओं को भी झल परे रहते एवं पदान्त में) षकारादेश होता है। क - VIII. iii. 39 (इण् से उत्तर विसर्जनीय को) षकारादेश होता है; (अपदादि कवर्ग, पवर्ग से परे रहते)। षच् - V. Iv. 113 (स्वाङ्गवाची जो सक्थि तथा अक्षि शब्द, तदन्त से समासान्त षच् प्रत्यय होता है, (बहुव्रीहि समास में) 515 षट् - I. 1. 23 ( चकारान्त और नकारान्त संख्यावाची शब्दों की) घट् संज्ञा होती है)। षद् ... - IV. 1. 10 देखें - षट्स्वस्वादिभ्य IV. 1. 10 षट्... - V. 1. 51 देखें षट्कतिo V. II. 51 षट् - VI. 1. 6 (जक्ष् तथा जक्षादिक) छः धातुओं की (अभ्यस्त संज्ञा होती है। - षट् ... - VI. 1. 173 देखें - त्रिचतुर्भ्यः VI. 1. 173 R-VI. ii. 135 (अत्राणिवाची षष्ठ्यन्त शब्द से उत्तर) पूर्वोक्त छः काण्डादि उत्तरपद शब्दों को भी आद्युदास होता है)। षट् ... - VII. 1. 55 देखें - षट्चतुर्भ्यः VII. 1. 55 षट्कतिकतिपयचतुराम् VII. 51 (षष्ठीसमर्थ) षट्, कति, कतिपय तथा चतुर् प्रातिपदिकों से (पूरण' अर्थ में विहित डट् प्रत्यय के परे रहते थुक् आगम होता है)। षट्चतुर्भ्यः - VII. 1. 55 षट्सञ्ज्ञक तथा चतुर् शब्द से उत्तर (भी आम् को नुट् का आगम होता है)। षट्चतुर्घ्य VI. 1. 173 - षट्सञ्ज्ञक शब्दों से तथा त्रि, चतुर् शब्दों से उत्तर (हलादि विभक्ति उदात्त होती है)। षट्स्वस्त्रादिभ्यः - IV. 1. 10 षट्संज्ञक प्रातिपदिकों से तथा स्वस्नादि प्रातिपदिकों से (स्त्रीलिङ्ग में विहित प्रत्यय नहीं होता)। षड्भ्यः - VII. 1. 22 षट्सञ्ज्ञक से उत्तर (जश्, शस् का लुक् होता है)। पढो: - VIII. ii. 41 पूर्वहन्यृतज्ञाम् धकार तथा ढकार के स्थान में (क आदेश होता है, सकार परे रहते) । षणि - VIII. iii. 61 (अभ्यास के इण् से उत्तर स्तु तथा ण्यन्त धातुओं के आदेश सकार को ही) षत्वभूत सन् परे रहते (मूर्धन्य आदेश होता है)। षण्मासात् - V. 1. 82 षण्मास प्रातिपदिक से (अवस्था अभिधेय हो तो 'हो 'चुका' अर्थ में ण्यत् और यप् प्रत्यय होते हैं तथा औत्सर्गिक ठञ् प्रत्यय भी)। . VI. 1. 83 पत्व... देखें - कवतुको: VI. 1. 83 षत्वतुको: - VI. 1. 83 धत्व और तुक् विधि करने में (एकादेश असिद्ध होता है) । - पूर्व... - VI. Iv. 135 देखें पूर्वहन् VI. in. 135 पपूर्वस्य VI. Iv. 9 - (वेदविषय में नकारान्त अङ्ग के उपधाभूत) षकार है पूर्व में जिससे, ऐसे (अच् को सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान के परे रहते विकल्प से दीर्घ होता है)। पूर्वह धृतराज्ञाम् - VI. iv. 135 " कार पूर्व में है जिसके ऐसा जो (अन्) तदन्त तथा हन् एवं धृतराजन् भसञ्छक अग के (अन् के अकार का लोप होता है, अण् परे रहते) ।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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