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________________ येन येन - II. iii. 20 जिस (विकृत अङ्ग) के द्वारा (अङ्गी का विकार लक्षित हो, उसमें तृतीया विभक्ति होती है) । येन - III. iii. 116 जिस कर्म के (संस्पर्श से कर्त्ता को शरीर सुख उत्पन्न हो, ऐसे कर्म के उपपद रहते भी धातु से ल्युट् प्रत्यय होता है)। येषाम् – 11. Iv. 9 -- जिन जीवों का (सनातन विरोध है. तहाची शब्दों का द्वन्द्व भी एकवत् होता है)। ...यो. - VI. 1. 64 देखें व्यो] VI. 1. 64 - ... यो. - VIII. iii. 18 देखें • व्यो: VIII. iii, 18 - योगप्रमाणे - Iii. 55 सम्बन्ध को प्रमाणवाचक मानकर यदि संज्ञा हो तो (भी उस सम्बन्ध के हट जाने पर उस संज्ञा का अंदर्शन होना चाहिये, पर वह होता नहीं है अर्थात् पञ्चालादि संज्ञायें जनपद - विशेष की हैं, सम्बन्धनिमित्तक नहीं ) । योगात् - V. 1. 101 436 (चतुर्थीसमर्थ) योग प्रातिपदिक से (शक्त है' अर्थ में यत् और उन प्रत्यय होते हैं। योगाप्रख्यानात् - 1. ii. 54 निवासादि सम्बन्ध की अप्रतीति होने से (लुब्विधायक सूत्र भी नहीं कहे जा सकते) । योजनम् V. 1. 73 - (द्वितीया समर्थ) योजन प्रातिपदिक से (जाता है' अर्थ में यथाविहित ठञ् प्रत्यय होता है ) । ....योदयृभ्यः - IV. ii. 55 देखें प्रयोजनयोदयध्य IV. II. 55 - ... योनिसम्बन्धेभ्यः - VI. iii. 22 देखें विद्यायोनिo VI. III. 22 ... योनिसम्बन्धेभ्यः - IV. 1. 77 देखें विद्यायोनिसम्बन्येभ्यः IV. 1. 77 .... योपधात् - IV. 1. 120 देखें धन्ययोपधात् IV. 1. 120 योपधात् V. 1. 131 - - (षष्ठीसमर्थ) यकार उपधा वाले (गुरु है उपोत्तम जिसका, ऐसे) प्रातिपदिक से (भाव और कर्म अर्थों में वुन प्रत्यय होता है)। यौ - II. iv. 57 (आर्धधातुक) युच् प्रत्यय परे रहते (अज् को वी आदेश होता है। ... यौ - IV. iv. 133 देखें - इनयौ IV. iv. 133 - ... यौगपद्य... - II. 1. 7 देखें विभक्तिसमीपसमृद्धि 11.1.7 ..... यौति ..... - III. III. 49 देखें - श्रयतियौतिo III. III. 49 खौ - ... यौधेयादिभ्य - IV. 1. 176 *** देखें - प्राच्यभर्गादि० IV. 1. 176 .. यौधेयादिभ्यः - V. iii. 117 देखें - पार्वादियांचे० . . 117 व्याभ्याम् VII. III. 3 (पदान्त) यकार तथा वकार से उत्तर (जित्, णित्, कित् तद्धित परे रहते अङ्ग के अचों में आदि. अच् को वृद्धि नहीं होती, किन्तु उन यकार, वकार से पूर्व तो क्रमशः ऐ और औ आगम होते है) । zat: - VI. iv. 77 (रंतु प्रत्ययान्त अङ्ग तथा इवर्णान्त, उवर्णान्त (धातु एवं भ्रू शब्द) को (इङ, उवङ् आदेश होते हैं, अच् परे रहते) । खौ - VIII. ii. 108 ; (उनके अर्थात् प्लुत के प्रसंग में एच के उत्तरार्ध को जो इकार, उकार पूर्व सूत्र से विधान कर आये हैं उन इकार उकार के स्थान में क्रमशः) य्. व् आदेश हो जाते है; (अच् परे रहते, सन्धि के विषय में) ।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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