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________________ च - VII. iv. 10 (संयोग आदि में है जिसके भी (गुण होता है, लिट् परे रहते) । च - VII. iv. 26 ( हैं) । - • ऐसे ऋकारान्त अङ्ग को) प्रत्यय परे रहते) भी (अजन्त अङ्ग को दीर्घ होता च - VII. iv. 30 (ऋ तथा संयोग आदि वाले ऋकारान्त अङ्ग को यङ् परे रहते) भी (गुण होता है) । च - VII. iv. 33 (क्यच् परे रहते) भी (अवर्णान्त अङ्ग को ईकारादेश होता है) । च - VII. iv. 43 ( ओहाक् त्यागें' अङ्ग को) भी (क्त्वा प्रत्यय परे रहते हि आदेश होता है) । त्र - VII. iv. 44 - ', (सुधित, वसुधित, नेमधित, धिष्व, धिषीय ये शब्द ) भी (वेद-विषय में निपातित हैं) । च - VII. iv. 51 (रैफादि प्रत्यय के परे रहते) भी (तास् सकार का लोप होता है) । और अस् च - VII. iv. 56 (दम्भ अङ्ग के अच् के स्थान में इकारादेश होता है) . तथा (चंकार से ईकारादेश भी होता है) । च - VII. iv. 65 (दाघर्ति, दर्धर्षि, बोभूतु, तेतिक्ते, अलर्षि, आपनीफण संसनिष्यदत्, करिक्रत्, कनिक्रदत्, भरिभृत्, दविध्वतः, दविद्युतत् तरित्रतः, सरीसृपतम्, वरीजत्, मर्मृज्य, आगनीगन्ति- ये शब्द) भी (वेदविषय में निपातन किये जाते हैं)। च - VII. iv. 72 (अशू व्याप्तौ ' अङ्ग के दीर्घ किये हुये अभ्यास से उत्तर) भी (नुट् आगम होता है)। 241 च - VII. iv. 77 (ऋ तथा पृ धातुओं के अभ्यास को) भी (श्लु होने पर इकारादेश होता है)। च - VII. iv. 86 (जप, जभी, दह, दंश, भञ्ज, पश- इन अङ्गों के अभ्यास को) भी (नुक् आगम होता है, यङ् तथा यङ्लुक् परे रहते)। च - VII. iv. 87 (चर गतौ' तथा 'त्रिफला विशरणे' अङ्ग के अभ्यास को) भी (यङ् तथा यङ्लुक् परे-रहते नुक् आगम होता है)। च - VII. iv. 89 (तकारादि प्रत्यय परे रहते) भी (चर तथा फल् अङ्ग के अकार के स्थान में उकारादेश होता है) । च - VII. iv. 90 (ऋकार उपधा वाले अङ्ग के अभ्यास को) भी (यङ् तथा यङ्लुक् में रीक् आगम होता है) । च - VII. iv. 91 (ऋकार उपधा वाले अङ्ग के अभ्यास को रुक्, रिक्) तथा चकार से (रीक् आगम होते हैं, यङ्लुक् 1 च - VII. iv. 92 (ऋकारान्त अङ्ग के अभ्यास को) भी (रुक्, रिक् तथा रीक् आगम होते हैं, यङ्लुक् होने पर) । च - VII. iv. 97 (गण धातु के अभ्यास को ईकारादेश) तथा चकार से (अकारादेश भी होता है, चङ्परक णि परे रहते ) । च - VIII. 1. 3 (जिसकी आम्रेडित-सञ्ज्ञा होती है, वह अनुदात्त) भी होता है)। च - VIII. 1. 10 (पीडा अर्थ में वर्तमान शब्द को) भी (द्वित्व होता है, तथा उस शब्द को बहुव्रीहि के समान कार्य भी होता है) । च - VIII. 1. 19 (पद से उत्तर आमन्त्रित सञ्ज्ञक सम्पूर्ण पद को) भी (पाद के आदि में वर्त्तमान न हो तो अनुदात्त होता है) । च - VIII. 1. 24 देखें - चवाहाहैव० VIII. 1. 24 च - VIII. 1. 25 (न देखना' अर्थ में वर्त्तमान ज्ञान अर्थ वाले धातुओं के योग में) भी (युष्मद् अस्मद् शब्दों को पूर्व सूत्रों से प्राप्त वाम्, नौ आदि आदेश नहीं होते)।
SR No.016112
Book TitleAshtadhyayi Padanukram Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAvanindar Kumar
PublisherParimal Publication
Publication Year1996
Total Pages600
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size11 MB
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