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________________ (श्लोक ६५ एवं ७५), लेखाङ्क ३ - सम्वत् ११७६ के लेख में 'वीरचैत्यविधौ', लेखाङ्क २० 'महावीरविधिचैत्य - जावालीपुरे श्रीमहावीरविधिचैत्य', लेखाङ्क ३५ - 'विधिचैत्य', लेखाङ्क ३८ - 'प्रह्लादनपुरे श्रीयुगादिदेवविधिचैत्य', लेखाङ्क ४२-४३ - 'युगादिदेवविधिचैत्य', इस लेख में खरतरगच्छीय संघ को भी 'विधि संघ' शब्द से अभिहित किया है। लेखाङ्क ४६ - 'श्री जैसलमेरुपार्श्वनाथविधिचैत्य' और 'श्रीपत्तने शान्तिनाथविधिचैत्य', लेखाङ्क ४७ - 'श्रीपत्तने श्रीशान्तिनाथविधिचैत्य', लेखाङ्क५४,५५,५६,६६,६७,७९ और ८० में श्रीपत्तने शान्तिनाथविधिचेत्य' का उल्लेखनीय प्रयोग प्राप्त होता है। विधिचैत्य का प्रयोग १२वीं शताब्दी सं प्रारम्भ होकर १४वीं शताब्दी तक तो चला ही है किन्तु १७वीं शताब्दी में भी इस शब्द के कहीं-कहीं उल्लेख प्राप्त होते हैं। जैसे - लेखाङ्क ११९४ और १२०५ में अहमदाबाद और पाटण के लेखों में 'शान्तिवीरविधिचैत्य' तथा लेखाङ्क ११९५, ११९७, ११९८ में 'शान्तिनाथविधिचैत्य' अहमदाबाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं। उल्लेखनीय है कि श्री विजय धर्मलक्ष्मी ज्ञान मन्दिर, आगरा में सुरक्षित १४वीं शताब्दी के अन्तिम चरण अथवा १५वीं शताब्दी के प्रथम चरण में लिखित स्वाध्याय पुस्तिका में दो पद्यो द्वारा विभिन्न नगरों में स्थापित विधिचैत्य में विराजमान मूलनायक के नमस्कार किया गया है: श्रीमालाख्यपुरे सुशर्म नगरे स्वर्णाचले पत्तने शान्ति-पार्श्व जिनश्च जेसलपुरे माण्डव्यपुर्यादिषु । श्रीजावालिपुरे च विक्रमपुरे श्रीभीमपल्लयां महावीरो लाटहृदे च मण्डलकरे ऽवन्त्यां च कन्यानके॥१॥ श्रीनाभेयजिनश्च वाग्भट पुरे श्री चित्रकूटे तथा श्रीविद्युत्पुर-शान्तिनादिपुरयो श्रीवासुपूज्याजितौ। गिंधिन्या च सुपार्श्वराट् शशिपतिः प्रह्लादने पत्तने चोञ्चायां विधिचैत्यसंस्थितिकृतस्तीर्थेश्वरान् संस्तुवे॥२॥ दादावाड़ियाँ - खरतरगच्छ में चारों दादागुरुदेव - युगप्रधान जिनदत्तसूरि, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि, प्रगट प्रभावी जिनकुशलसूरि और युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि - की मान्यता अभूत पूर्व रही है। श्रद्धा भक्ति के साथ इनकी नित्य निमित्त पूजन अर्चना होती है और मनोभिलाषा की पूर्ति भी होती है। इन दादागुरुदेवों का क्रमशः स्वर्गस्थल निम्न हैं :- १. अजमेर २. दिल्ली ३. देराउर (जो अब पाकिस्तान में है) ४. बिलाड़ा। जिनकुशलसूरिजी के दर्शन देने के स्थान मालपुरा, नाल और ब्रह्मसर है। इन गुरुदेवों की उपासना न केवल खरतरगच्छ वाले ही करते हैं अपितु जैन और जैनेतर भी श्रद्धा के साथ करते है। दादाबाड़ियों की स्थापना का प्रारम्भ विक्रम संवत् १२२१ में ही प्रारम्भ हो गया था। मणिधारी जिनचन्द्रसूरि ने अजमेर में श्री जिनदत्तसूरि जी के स्मारक स्तूप की प्रतिष्ठा करवाई थी। इस XXVIII प्राक्कथन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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