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________________ स्तूप का जीर्णोद्धार विक्रम संवत् १२३५ में जिनपतिसूरि ने करवाया। तभी से इन गुरुदेवों की स्थापना निरन्तर और अविच्छिन्न रूप से होती रही है। पूर्व में इन दादाबाड़ियों में थुम्भ/स्तूप के रूप में प्रतिष्ठा होती थी। परवर्ती काल में चरणों और मूर्तियों की स्थापना होती रही है। भारत वर्ष के कोने-कोने में इनकी दादाबाड़ियाँ विद्यमान हैं। अनुमानतः इनकी संख्या १४००-१५०० के लगभग है। खरतरगच्छाचार्यों द्वारा मूर्तियों एवं दादागुरुदेवों के मूर्ति-चरणों के प्रतिष्ठा लेख हजारों की संख्या में प्राप्त होते हैं। गाँवों-गाँवों मे घूमकर खरतरगच्छीय प्रतिष्ठा लेखों का संकलन किया जाए तो उनके लेख १०,००० से कम नहीं होंगे। मैंने पूर्व विद्वानों द्वारा प्रकाशित लेखों का संकलन कर खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह के नाम से प्रकाशित किया है जिसमें २७६० लेख हैं। आशा करता हूँ भविष्य में कोई समर्पित विद्वान् इस कार्य को सम्पन्न करेगा। राजाओं से सम्बन्ध __शास्त्रों में विशिष्ट व्यक्तित्व एवं गुणधारक आचार्यों को प्रभावक शब्द से संबोधित किया गया है। प्रभावक आचार्य आठ प्रकार के बतलाए गये हैं:- प्रावचनिक, धर्मकथा प्ररूपक, वादी, नैमित्तिक, तपस्वी, विद्याधारक, सिद्धिधारक और कवि। शासन प्रभावक आचार्य उपरोक्त किसी भी गुणसिद्धि को प्रमुखता देते हुए शासन की रक्षा के लिए, शासन के उत्कर्ष के लिए, शासन की प्रभावना के लिए प्रयोग करते हैं। किसी भी देश के राजा को अपने धर्म का अनुयायी बनाकर शासन प्रभावना इनका मुख्य लक्ष्य रहता है। किसी को पूर्णत: अपना अनुयायी बना लेना, किसी के साथ गाढ़ मधुर सम्बन्ध रखते हुए उनको प्रभावित कर तीर्थों और संघों के उपद्रवों को दूर करना, फरमान प्राप्त करना और किसी के साथ सामञ्जस्य स्थापित करते हुए अपने समाज को सुरक्षित रखना। 'यथा राजा तथा प्रजा' के न्याय के अनसार प्रजा राजा का ही अनुकरण करती है और राजा द्वारा स्वीकृत या सम्मानित धर्म ही प्रजा का धर्म हो जाता है। अत: यह आवश्यक होता है कि अपने व्यक्तित्व, कृतित्व और चमत्कारिकता से किसी भी नरेश को प्रतिबोध देकर धार्मिक कार्य कराये जाएं। पूर्वपरम्परा का अनुसरण करते हुए खरतरगच्छाचार्यों ने भी इस ओर पहल की और न केवल गच्छ के अभ्युदय को अपितु शासन के अभ्युदय को भी प्रखरता से बढ़ाया। इतिहास में इस सम्बन्ध में जो भी उल्लेख मिलते हैं उनमें से कतिपय उल्लेख निम्न हैं: ___पाटण के दुर्लभराज चौलुक्य - श्री वर्धमान सूरि के शिष्य श्री जिनेश्वर सूरि ने अणहिल्ल पत्तन में गुर्जरेश्वर दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर, उनको पराजित कर खरतरविरुद प्राप्त किया। महाराजा दुर्लभराज इनको बड़ी सम्मान की दृष्टि से देखते थे। धारा एवं चित्तोड़ नरेश नरवर्म - श्री जिनवल्लभसूरि (सर्ग सं० ११६७) जब चित्तोड़ में थे तब, धाराधीश नरवर्म की सभा में दो दक्षिणी पण्डितों ने 'कण्ठे कुठार: कमठे ठकारः' यह समस्यापद रखा। स्थानीय विद्वानों व राज पण्डितों की समस्यापूर्ति से असन्तुष्ट होकर, कवि जिनवल्लभ का नाम प्राक्कथन XXIX Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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