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________________ के मन्दिरों की गणना की जा सकती है। आचार्यगण मंदिरों के उद्धार, नवीन-निर्माण और संरक्षण इन तीनों दृष्टियों को साथ लेकर चलते थे। भारत के प्रत्येक प्रदेश में इनके द्वारा प्रतिष्ठापित एवं रक्षित तीर्थस्थल पाये जाते हैं। श्री वर्धमानसूरि द्वारा आबू की विमलवसही, श्री अभयदेवसूरि द्वारा स्थापित स्तम्भन पार्श्वनाथ तीर्थ, श्री जिनवल्लभसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित चित्तौड़, नागौर, मरुकोट्ट के मंदिर, युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि द्वारा प्रतिष्ठित अजमेर, कन्यानयन, विक्रमपुर, नरहड़ आदि के मंदिर, श्री जिनपतिसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित स्वर्णगिरि, खेटक आदि के और भी जिनकुशलसूरि स्थापित शत्रुञ्जय में मानतुंग विहार, पाटण, सिंध के देवराजपुर, उच्चानगर, हाला आदि, भुवनहिताचार्य द्वारा राजगृह, आदि स्थानों में मंदिर स्थापित करने और प्रतिष्ठापित करने के उल्लेख मिलते ही हैं। बिहार/बंगाल प्रदेश में सम्मेतशिखर, पावापुरी, राजगृह, चम्पापुरी, अजीमगंज, मिथिला, जौनुपर, क्षत्रियकुण्ड, कलकत्ता आदि, हिमाचल प्रदेश में नगरकोट (कांगड़ा), पंजाब में लाहोर, उत्तर प्रदेश में लखनऊ, कंपिलपुर, हस्तिनापुर, राजस्थान में जेसलमेर, लौद्रवा, अमरसागर, बाड़मेर, नाकोड़ा पार्श्वनाथ, कापरड़ा, करेड़ा, जोधपुर, बीकानेर, जयपुर, त्रिभुवनगिरि, नागोर, चूरु, उदयपुर, देलवाड़ा, आबू-खरतरवसही, सौराष्ट्र में शत्रुञ्जय - मानतुंग विहार, खरतरवसही, सेठ मोतीशाह का मंदिर, तलेटी मंदिर, गिरनार तीर्थ की खरतरवसही आदि, गुजरात में पाटण - वाड़ी पार्श्वनाथ, खेतरवाड़ा जो कि खरतरपाटक का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है, अहमदाबाद में सोमजी शिवाजी रायपुर, नागपुर आदि स्थानों पर खरतरगच्छ के समृद्ध श्रावकों द्वारा मंदिरों का निर्माण हुआ था और वे खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित थे। इस प्रकार देखा जाए तो भारत के प्रमुख-प्रमुख तीर्थ खरतरगच्छ के आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठापित थे और व्यवस्था भी इसी गच्छ के श्रावकों द्वारा होती थी। आज वर्तमान में इन तीर्थों की व्यवस्था और रक्षा चाहे किसी के हाथों में हो किन्तु पूर्व में तो ये खरतरगच्छ द्वारा ही प्रतिष्ठित और संरक्षित थे। विधिचैत्य - श्री जिनवल्लभसूरि ने जिनेश्वरसूरि की मान्यताओं का प्रचण्ड वेग के साथ समर्थन ही नहीं किया अपितु निषेध के साथ शासत्रविहित विधि का भी प्रखरता के साथ प्रचार किया। जिनवल्लभसूरि की विधि सम्मत आचार्य व्यवस्था के कारण ही उनके अनुयायी विधि पक्ष के नाम से सम्बोधित किए जाने लगे। जैन परम्परा के प्रमुखतः समस्त क्रिया विधा भगवद् मूर्ति के समक्ष मन्दिरों में ही होते है। मन्दिर और मूर्तियाँ ही विधि सम्मत न होकर परम्पराओं के अखाड़े हों तो स्वाभाविक है कि नवीन मन्दिरों का निर्माण करवाया जाए। जिनवल्लभसूरि के समय से ये मन्दिर भी विधिचैत्य के नाम से सम्बोधित होने लगे। प्रतिष्ठित मन्दिरों और मूर्तियों में भी 'विधि' शब्द का उल्लेख होने लगा। उदाहरण के तौर पर - (मेरे द्वारा सम्पादित खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेख संग्रह के) लेखाङ्क १ - 'विधि चैत्य' प्राक्कथन XXVII Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016106
Book TitleKhartargaccha Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2006
Total Pages692
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size14 MB
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